Sunday 17 October 2010

कलमाडी के पीछे कौन ?

कॉमनवेल्थ खेल तो खैर खूबी से खत्म हो गए, अच्छे खासे मेडल्स भी भारत की झोली में आ गए। दुनिया की नजरों में भारत खेलों का नया सुपर पावर बनकर उभरा और मेलबर्न से दिल्ली पहुंचते पहुंचते हमने अपने खेलों का स्तर इतना सुधार लिया किया कि हम चौथे से दूसरे पायदान पर सीना तान कर खड़े हो गए। एक अच्छी बात और हुई कि कम से कम कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान कोई ऐसा हादसा नहीं हुआ जिससे देश की इज्जत पर बट्टा लगता और महाखेलों में महाभ्रष्टाचार की पोल खुल जाती। इंद्र देवता मेहरबान रहे और सालों की जगह महीनों में निपटने वाले काम की असलियत खोल के अंदर ही रह गई।

लेकिन क्या यहीं सारा खेल खत्म हो जाता है, नहीं मेरे हिसाब से असली खेल या कह लीजिए खेल के पीछे का खेल तो अब शुरू हुआ है। आयोजन समिति के अध्यक्ष की हैसियत से कलमाडी ने जो गुल खिलाएं हैं क्या वो उनका पीछे छोड़ देंगे। क्या खैर खूबी से खेल का आयोजन करा लेने भर से उनके सारे पाप धुल जाएंगे, क्या देश की जनता उन्हें माफ कर देगी। इन सारे सवालों का जवाब है शायद नहीं। लेकिन एक औऱ अहम सवाल का जवाब है शायद नहीं औऱ वो सवाल है कि क्या सिर्फ अपने बलबूते कलमाडी ने वो तमाम गुल खिला दिए जिससे उनकी तो क्या उनकी सात पुश्तों को भी एक धेला कमाने की जरूरत न पड़े । जी हां शायद नहीं ।

भला ऐसा कैसै हो सकता है कि देश की नाक के नीचे एक कांग्रेस सांसद और आईओसी अध्यक्ष जिसके ऊपर कॉमनवेल्थ कराने की अहम जिम्मेदारी सौंपी जाती है , वो इस आड़ में केंद्र और दिल्ली की कांग्रेस की सरकार के होते वो कर डालता है जिससे देश की जनता खुद को छला महसूस करने लगती है औऱ देश की साख दांव पर लग जाती है। कैसे 5 करोड़ का काम 50 करोड़ में कराया गया और देश की शान के नाम पर हजारों करोड़ के वारे न्यारे कर दिए गए। नहीं , मै नही मानता कि एक अकेला आदमी महाखेलों में ऐसे महाभ्रष्टाचार की हिम्मत कर सकता है। जाहिर है सिर्फ दिल्ली की सीएम शीला दीक्षित और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कलमाडी एंड कंपनी के बॉयकॉट कर देने भर से उनका दामन पाक साफ नहीं हो जाता। उन्हें देश की जनता को ये भरोसा दिलाना होगा कि इस महालूट में उनका कोई योगदान नहीं था , क्योंकि तब तक ये शंका हर भारतीय के दिलोदिमाग में जिंदा रहेगी....और वो ये सवाल पूछता रहेगा कि कलमाडी ने जो किया सो किया पर कलमाडी के पीछे कौन ?

Tuesday 7 September 2010

सूरज पर इंसान ?

सूरज का हमला....सुनकर ही दिल खौफ से भर जाता है....कुछ दिनों पहले अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के वैज्ञानिकों ने दुनिय़ा को धरती पर आने वाले इस खतरे की जानकारी देकर चौंका दिया....सवाल उठे , कैसे रोंकेगे वैज्ञानिक इसे.....क्या वाकई 10 करोड़ हाइड्रोजन बमों के बराबर का तूफान हमारी इस खूबसूरत दुनिया को खत्म कर देगा.....या फिर इसे रोका भी जा सकता है....आखिर कैसे किया जाएगा सूरज पर कब्जा....चांद पर पहुंच चुका है इंसान....मंगल पर हो रही है जिंदगी तलाशने की कोशिश ....लेकिन कैसे पहुंचा जाए इस धधकते हुए सूरज तक.....जिसकी गर्मी लाखों किलोमीटर दूर तक सबकुछ जला कर खाक करने का माद्दा रखती है...जिससे आने वाला तूफान धरती के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है....कैसे करे कोई हिमाकत आग के इस कुदरती गोले के नजदीक पहुंच कर मंडराने की.......उसे जांचने की...उसे परखने की......लेकिन इस बार वैज्ञानिकों ने हिम्मत कर ली है.....नासा के वैज्ञानिक अब सूरज की आंखों में आंखे डालकर देखने जा रहे हैं....और इस महत्वाकांक्षी मिशन को नाम दिया गया है सोलर प्रोब प्लस

जी हां सोलर प्रोब प्लस....नासा का ये वो मिशन है जिसके बारे में दुनिया भर के वैज्ञानिक अभी सिर्फ और सिर्फ कल्पना ही कर पाए हैं.....लेकिन अब होने जा रहा है ये ख्वाब साकार......नासा के वैज्ञानिकों ने शुरू कर दी है इस मिशन के जरिए कोशिश आग उगलते सूरज के बेहद नजदीक पहुंचने की। तैयारी पूरी हो चुकी है.....हमारे सौरमंडल और सूरज से जुड़े हजारों रहस्यों को सुलझाने के लिए अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा पहली बार सूर्य के वायुमंडल के अंदर सीधे एक अंतरिक्ष यान भेजने जा रहा है......जरा सोचिए आग से लपलपाते सूरज के वायुमंडल में इंसानी ताकत का मुजाहिरा करता एक अंतरिक्ष यान.....लेकिन क्या ये इतना आसान होगा...जवाब है नहीं.....ये बहुत मुश्किल है.....क्योंकि इस अंतरिक्ष यान को आग उगलते सूरज के बेहद करीब उससे सिर्फ चार लाख मील की दूरी तक पहुंचना है.....जी हां सिर्फ इस लिए लगा रहा हूं क्योंकि आपको हमको ये दूरी शायद बहुत लगे.....लेकिन आप अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि सूरज से चार लाख मील दूर भी उसकी गर्मी किस कहर बनकर टूटती है....बड़े से बड़ा अंतरिक्ष यान भी यहां एक सेंकेड भी टिक नहीं सकता....क्योंकि ये गर्मी पल भर में सब कुछ खाक कर देती है....तो फिर क्या होगा नासा के मिशन सोलर प्रोब प्लस का...

जी हां इस मिशन की तैयारी में जुटे वैज्ञानिकों के लिए भी ये सबसे बड़ा सवाल था और इसीलिए नासा के इस अंतरिक्ष यान को सूर्य के वायुमंडल में पहुंचकर भी अपना वजूद बरकरार रखने के लिए खास तरह से तैयार किया गया है। अंतरिक्ष यान की ऊपरी परत को खासतौर पर एंटी टेंपेरेचर टेक्नॉलजी से बने कार्बन से बनाया गया है जो सूरज के गर्म शोलों से उसकी हिफाजत करेगा....और 1400 डिग्री के भयानक तापमान और जबरदस्त भीषण रेडियोधर्मिता को झेलेगा....नासा का ये मिशन साल 2018 तक सूरज पर भेजे जाने की उम्मीद है....पूरे ब्रह्मामांड में ये पहला मौका होगा जब कोई अंतरिक्ष यान सूरज के इतने नजदीक पहुंचेगा....इतने नजदीक कि यान में लगे टेलिस्कोप सूरज की 3 डी तस्वीरें उतार पाने में सक्षम होंगे.....जब सूरज के शोलों की जबरदस्त गर्मी यान के एंटीना से टकराएगी तो उसका हाइवोल्टेज यान में रिकॉर्ड हो जाएगा....और वैज्ञानिक सूरज के हमले के खतरे की ताकत का अंदाजा लगाकर उसका तोड़ ढूंढने में जुट जाएंगे। है न कमाल की बात ।

Sunday 1 August 2010

राहुल 'पब्लिसिटी' महाजन

उन दिनों बीजेपी मेरी बीट हुआ करती थी, एक प्रोडक्शन हाउस के लिए मैं रिपोर्टिंग करता था। इन्ही दिनों बीजेपी के चाणक्य प्रमोद महाजन को भी कई बार नजदीक से देखने का मौका मिला कई बार पार्टी कार्यालय में या फिर सफदरजंग लेन के उनके बंगले पर। अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में प्रमोद महाजन की क्या हैसियत थी किसी से छुपी नहीं...पार्टी के हर फैसलों में उनका दखल होता और सरकार के हर काम उनसे सलाह लिए बिना किए नहीं जाते। बेहद सधा हुआ व्यक्तित्व , दिग्गज राजनेताओं जैसे हावभाव और बोलने में महारत । जमीन से जुड़ा नेता न होने के बावजूद प्रमोद महाजन का पार्टी में कोई सानी नहीं था। हालांकि उस वक्त भी उनकी पर्सनल जिंदगी को लेकर पत्रकार बिरादरी में तरह तरह की चर्चाएं होती रहतीं थीं पर प्रमोद महाजन ऐसी बातों को सौ पर्दों में रखना अच्छी तरह जानते थे। राज़ तो बहुत थे पर उनकी जिंदगी तक वो राज़ ही रहे। ये भी एक संयोग है कि अपने ही भाई के हाथों हत्या के बाद उनकी मौत भी एक ऐसा राज़ बन गई जो कभी दुनिया के सामने नहीं खुल पाएगा।

प्रमोद महाजन की अचानक हत्या और महाजन फैमिली पर टूटा दुखों का पहाड़.....ये वो पल था जब देश ने पहली बार महाजन परिवार के चश्मो चिराग की सूरत देखी, उसे पहचाना। ये वो पल था जब मां रेखा महाजन और बहन पूनम महाजन को राहुल की सबसे ज्यादा जरूरत थी.....पिता की जलती चिता के सामने मां को संभालते, उन्हें दिलासा देते राहुल महाजन को जिसनें भी देखा वो....रो दिया....लोगों को पहली बार पता चला कि प्रमोद महाजन का इतना बड़ा बेटा भी है। साथ ही लगा कि चलो अब पूरे घर की जिम्मेदारी राहुल के कंधों पर होगी। बीजेपी के कुछ नेता तो राहुल महाजन में प्रमोद महाजन का अक्स भी देखने लगे और उन्हें राहुल मे प्रमोद जी का राजनीतिक वारिस नजर आने लगा । पर पिता की अस्थियों को गंगा मय्या की गोद भी नसीब नहीं हुई थी कि राहुल ने अपना असली रूप दुनिया के सामने दिखा दिया। वो ड्रग्स के चंगुल में ऐसा फंसे कि जेल तक जाना पड़ा.....जमानत पर रिहा हुए....तो उन्हें खुद सहारे की जरूरत थी.....मेरे ख्याल से कोई भी भूला नहीं होगा उन तस्वीरों को जिसमें चार पांच पुलिस वाले उन्हें पकड़कर , कंधों से उठाकर कोर्ट से बाहर ला रहे थे।

जिसे प्रमोद जी के जाने के बाद खुद परिवार का सहारा बनना था वो खुद बेसहारा था। और ऐसे मुश्किल वक्त में उनका सहारा बनीं श्वेता सिंह। राहुल का पहला प्यार और उनके बचपन की दोस्त श्वेता। राहुल और श्वेता दोनों ने जेट एयरवेज में पायलट के तौर पर अपना करियर शुरू किया था। दरअसल प्रमोद महाजन की भी ये दिली इच्छा थी कि श्वेता उनके घर की बहू बने । सो राहुल की आदतों के बारे में सब कुछ जानते हुए भी श्वेता ने अपने दिल की आवाज सुनी....और राहुल से शादी कर ली। खुद श्वेता ने एक बार कहा था कि उस वक्त हालात ही कुछ ऐसे हो गए थे जिन्हें मैं इग्नोर नहीं कर पाई वही किया जो दिल ने कहा....

पर अफसोस मुश्किल वक्त में खुद का सहारा बनने वाले अपने इस हमसफर को भी राहुल ने वो दर्द दिए कि रिश्तों का सारी डोर टूट गई...शादी के एक साल 4 महीने ही बीते थे कि एक अखबार में छपी चंद तस्वीरों ने एक बाऱ फिर महाजन परिवार के इस लाडले की पर्सनल जिंदगी को सड़क पर ला दिया। अपने पति के जुल्म के बाद चोटें दिखातीं श्वेता की तस्वीरों को देखने के बाद कुछ कहने सुनने के लिए बचा नहीं......हवा में श्वेता के साथ प्लेन संभालने वाले राहुल अपनी पहली शादीशुदा जिंदगी के ठहराव को संभाल नहीं सके... खबर ये भी आई कि बॉलीवुड की एक अभिनेत्री के साथ राहुल महाजन का रिश्ता इस शादी पर भारी पड़ा। हर तरफ चर्चे होने लगे राहुल की रंगीन मिज़ाजी के , मीडिया की नजर में प्रमोद महाजन का वारिस अब राहुल महाजन से रंगीला राहुल बन चुका था। श्वेता ने तलाक की अर्जी दाखिल की । राहुल भी तलाक लेना चाहते थे..इसलिए कोई परेशानी नहीं आई और दोनों का तलाक हो गया....और इस तरह से राहुल की रंगीली दुनिया और उनके बुरे बर्ताव ने उनका पहला प्यार उनसे छीन लिया....और पुरानी दोस्त श्वेता के साथ उनकी पहली शादी नाकाम हो गई....

इस बीच एक काम और हुआ था इतने दिनों तक गलत कारणों से ही सही मीडिया में छाए रहने के बाद राहुल महाजन एक जाना पहचाना चेहरा बन चुके थे , लोग उन्हें जानने लगे थे सो उन्हें मौका मिला बिग बॉस 2 में एक कंटेस्टेंट के तौर पर, लेकिन यहां भी राहुल ने प्रमोद महाजन की जिंदगी भर की कमाई इज्जत में पलीता लगाने में कोई कसर छोड़ी नहीं। कभी मोनिका से इश्क लड़ाया तो कभी पायल रोहतगी का मसाज करते नजर आए। कभी पूल में तो कभी आधी रात को लड़कियों के कमरे के अंदर। हर किसी को बता दिया कि राहुल किस चिड़िया का नाम है, एक दो कॉमेडी शोज जज करने के बाद टीवी पर चले महीने भर के ड्रामे, माफ कीजिएगा रिऐलिटी शो के बाद कोलकाता की मॉडल डिंपी से शादी भी टीवी पर ही रचा ली । उऩ दिनो राहुल से एक बार मेरी बात हुई तो वो इसी बात पर जोर देते रहे कि इस बार शादी सात जन्मों के लिए कर रहा हूं, सीरियस हूं , अब आप टीवी वालों को कुछ कहने का कोई मौका नहीं दूंगा। पर देखिए पांच महीने भी नहीं गुजरे की एक बार फिर घर की लड़ाई सड़कों पर, एक बार फिर पत्नी डिंपी, श्वेता की तर्ज पर अखबार वालों को उनकी दीं चोटें गिनाती फिर रही हैं और पायल जैसी हसीनाओं से अफेयर के चर्चे मीडिया की सुर्खियां बनी हुई हैं।

वाकई आज हैरत होती है देखकर कि राहुल उसी प्रमोद महाजन के बेटे हैं जिन्होंने हर पल मीडिया के बीच रहकर भी कभी अपनी व्यक्तिगत बातों को पब्लिक नहीं होने दिया । राहुल के ये रंग देखकर मुमकिन है बहुत लोग उनकी परवरिश पर भी सवाल खड़े करते हों । पर राहुल को इन सब बातों से शायद कोई फर्क नहीं पड़ता, अपने पिता की कमाई जिंदगी भऱ की इजज्त , वो शोहरत शायद उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। पिता की कमाई दौलत को खर्च करने के अलावा उनके पास बस एक ही काम है पब्लिसिटी हासिल करना। और राहुल इसके लिए कुछ भी करने को तैयार हैं , ये सोचकर कि बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा। प्रमोद महाजन आज जिंदा होते तो रो रहे होते अपने इस सपूत की कारस्तानियों पर.......कम से कम मुझे तो यही लगता है।

Monday 26 July 2010

बीजेपी का 'शाह' तिलक

तीन दिनों से फरार अमित शाह जब प्रेस कॉन्फ्रेंस में अचानक प्रकट हुए तो लगा कि नेता जी पूरी तैयारी के साथ आए होंगे मीडिया के सवालों का जवाब देने। पर अफसोस थोथा चना बाजे घना वाली कहावत याद आ गई शाह के मुंह से निकली अमृत वाणी सुनकर। एक रिपोर्टर ने उनके और एनकाउंटर करने वाले पुलिस वालों के बीच की बातचीत के ब्यौरे पर सवाल दागा कि क्या कहेंगे शाह साहब आप अपनी सफाई में । सवाल पूछने पर मोदी का ये खासमखास नेता बोल पड़ा कि आपकी मुझसे बात हो रही है , अब अगर मै हत्या कर दूं तो आप दोषी हो जाएंगी। शाह ने समझा मैने सही निशाने पर तीर मारा है, अंदर ही अंदर खुशी उबाल मार रही थी कि एक पत्रकार ने सवाल दाग कर उनकी खुशी वापस हलक में अटका दी, सवाल बहुत छोटा था लेकिन तीर की तरह निशाने पर लगा। पत्रकार ने पूछा, मतलब हत्या आपने नहीं उन पुलिस अफसरों ने की । शाह को मानों काटो तो खून नहीं, क्या बोलें क्या न बोलें। चेहरा देखकर ऐसा लग रहा था मानों किसी ने चोरी पकड़ ली हो। कुछ समझ नहीं आया , बात तो पते की थी कुछ बोला न गया सो कुछ देर सोचने के बाद बेशर्मी भरी मुस्कान चेहरे पर तैर गई। मन में उमड़ रहे झुंझलाहट के तूफान को संभालते हुए नेता जी उस पत्रकार से बोले आप सीबीआई में शामिल हो जाइए । बात खत्म हो गई औऱ शाह की जान में जान आई। जाहिर है कांग्रेस को गरियाने औऱ तोहमत लगाने के अलावा अमित शाह के पास मीडिया को बताने के लिए कुछ भी ऐसा नही था जो उन्हें बेकसूर साबित कर सके।

शाह ने जो किया सो किया, मार्बल लॉबी को परेशान करने वाले एक गैंगस्टर सोहराबुद्दीन का फर्जी एनकाउंटर फिर उसकी बेकसूर बीवी की जहर का इंजेक्शन देकर हत्या और फिर सोहराबुद्दीन के राइट हैंड तुलसी प्रजापति का फर्जी एनकाउंटर । इन तमाम आरोपों की सफाई अब उन्हें अदालत में देनी होगी। पर सवाल ये नहीं है कि जेल की सलाखों के पीछे भेजा जा चुका हत्या का एक आरोपी मंत्री बचेगा या नपेगा ? सवाल तो ये है कि देश के मुख्य विपक्षी दल बीजेपी को क्या हो गया है आखिर हत्या अपहरण और जबरन वसूली जैसे संगीन आरोपों से सने एक शख्स की भरी मीडिया के सामने आरती उतारकर उसकी जयजय कार करके वो साबित क्या करना चाहती है। आखिर ये स्वागत और नारेबाजी किसलिए, क्या अमित शाह कोई जंग जिताउ योद्धा बनकर पार्टी दफ्तर आए थे। या फिर उन्होंने कुछ ऐसा काम किया था जिससे गुजरात की अस्मिता में चार चांद लग गए ।

कहीं ऐसा तो नही कि नरेन्द्र मोदी को सिर आंखों पर बैठाने वाली बीजेपी को सोहराबुद्दीन के खून से रंगे हाथों में नया हिंदू ह्रदय सम्राट नजर आ रहा है । शायद ऐसा ही है तभी तो गुजरात में पार्टी के आला नेतृत्व से लेकर बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने आडवाणी के घर मीटिंग के बाद उस वक्त फरार चल रहे अमित शाह के सिर पर हाथ रख दिया। किसी ने एक बार ये नहीं कहा कि कानूनी प्रक्रिया का पूरा सम्मान करते हुए शाह जांच में मदद करेंगे। उल्टे ये दावा किया गया कि केंद्र की कांग्रेस सरकार सीबीआई जांच के बहाने शाह पर निशाना साधकर गुजरात में बीजेपी को नीचा दिखाने की कोशिश कर रही है। लेकिन शायद ये दावा करते हुए बीजेपी ये भूल गई कि सोहराबुद्दीन एनकाउंटर की जांच का जिम्मा केंद्र सरकार ने नहीं बल्कि देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को सौंपा था। क्या बीजेपी का भरोसा देश की न्यायिक व्यवस्था से भी उठ गया है ? अचानक उसके लिए अमित शाह इतने खास कैसे हो गए कि इतने गंभीर और संगीन आरोपों के तले दबे एक नेता को बचाने के लिए पार्टी ने अपनी इज्जत दांव पर लगा दी। या तो बीजेपी के नेताओं को ये लगता है कि फर्जी एनकाउंटर के एक आरोपी का साथ देकर पार्टी देश के लोगों के बीच बेहतर छवि बना पाने में कामयाब होगी या फिर मोदी का कद पार्टी से भी बड़ा हो चुका है। और अब बीजेपी में वही होगा जो मोदी चाहेंगे। देखिए बीजेपी में मोदी मार्का राजनीति का ये दौर कब तक चलता है और पार्टी को इसका कितना खामियाजा भुगतना पड़ता है

Sunday 13 June 2010

राजनीति के गड़े मुर्दे

राजनीति में मुर्दे कभी दफन नहीं किए जाते उन्हें जिंदा रखा जाता है ताकि वक्त आने पर वो बोलें....प्रकाश झा की राजनीति में मनोज वाजपेयी का ये डायलॉग आज नरेंद्र मोदी के पटना के ताजा भाषण के बाद अचानक याद आ गया......। पटना में बीजेपी की स्वाभिमान रैली में पूरे कॉन्फिडेंस से कांग्रेस की बखिया उधेड़ते नरेन्द्र मोदी और साल 2007 के गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान मोदी को उनकी ही मांद में घुसकर उन्हें उनकी औकात बतातीं सोनिया गांधी.....राजनीति के गड़े मुर्दे होते क्या हैं ये जानने के लिए इन दोनों बातों का जिक्र एक साथ करना लाज़मी है....क्योंकि आज अरसे बाद मोदी ने एक बार फिर कुछ गड़े मुर्दों को बुलवाया है....सोनिया गांधी को खरी खरी सुनाई है.....मोदी ने कहा कि भोपाल गैस कांड में हजारों लोगों की जानें गईं...और भोपाल के गुनहगार वॉरेन एंडरसन को बचाने में उस वक्त की कांग्रेस शासित केंद्र और राज्य सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी ....अब सोनिया गांधी इस मसले पर चुप क्यों हैं....वो अपना मौन तोड़ें और देश को बताएं कि असली 'मौत का सौदागर' कौन है.....

मोदी एक सधे हुए राजनेता हैं...वो एक एक शब्द तोलकर बोलते हैं....'मौत का सौदागर' - गुजरात दंगों की कालिख ढो रहे मोदी के लिए ये जुमला बेहद खास है....क्योंकि पहली बार इसका इस्तेमाल 2007 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उनके खिलाफ अपनी एक चुनाव रैली में किया था ....सोनिया ने मोदी की इस दुखती रग पर ये सोचकर हाथ रखा था कि मोदी को मौत का सौदागर बताने पर अल्पसंख्यकों के जख्म हरे होंगे....एक सूबे की जनता को अपने मुखिया के चेहरे के पीछे छुपा चेहरा नजर आएगा...और वोट लहर उनके पक्ष में जाएगी.....लेकिन हुआ ठीक इसका उलट.....वोटरों के ध्रुवीकरण में माहिर मोदी की राजनीति जीती और कांग्रेस को मिली हार....और एक बार फिर गुजरात दंगों के आरोपी मोदी भारी बहुमत से जीतकर गुजरात की सत्ता पर काबिज होने में सफल हुए....वो दिन और आज का दिन...मौत के सौदागर नाम का ये जुमला...मोदी का चहेता जुमला बन गया...क्योंकि ये उन्हें याद दिलाता है उनकी जीत और सोनिया की हार की। वैसे दाद देनी होगी मोदी के कॉन्फिडेंस की इस जुमले का दुबारा जिक्र करने से वो जरा भी नहीं चूके....ये जानते हुए कि इस जुमले की आंच में देश के लिए सबसे बड़ा शर्म बन चुके गुजरात दंगों के जख्म फिर से हरे हो सकते हैं...मोदी ने दरअसल इस बात की कभी फिक्र की ही नहीं ...क्योंकि राजनैतिक तौर पर दंगों के दंश ने उन्हें फायदा ही फायदा दिया है....दंगे हमेशा उनके लिए मुनाफे का सौदा ही साबित हुए हैं। वो पहले से ज्यादा मजबूत हुए...बीजेपी में उनका कद बढ़ा....संघ में उनकी पूछ बढ़ी....वो बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार तक कहे जाने लगे...और दंगों का दाग लादे सरकार कायम रखकर खुद को उन्होंनें एक मझा हुआ राजनेता साबित किया।

वैसे मोदी के इस बयान को सुनकर चोर चोर मौसेरे भाई वाली कहावत भी याद आ गई.....क्योंकि मोदी कांग्रेस से यही तो कहना चाहते थे कि 2002 में गुजरात में मैने जो किया वो किया, हमारा दामन अगर दागदार है तो आप कौन से दूध के धुले हैं...आखिर भोपाल गैस कांड में 25000 मौतों के जिम्मेदार शख्स यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वॉरेन एंडरसन को कांग्रेस की तत्कालीन राज्य और केंद्र सरकार ने भगाने में इतनी दिलचस्पी क्यों दिखाई । मोदी ने इस बार सोनिया की ही तरह कांग्रेस की दुखती रग पर हाथ रखा है, ये मु्द्दा वैसे भी इस वक्त कांग्रेस के गले की सबसे बड़ी हड्डी है...सोनिया गांधी चुप हैं और प्रणब मुखर्जी जैसे दिग्गजों तक को ये समझ में नहीं आ रहा कि पार्टी की खाल कैसे बचाई जाए.....जाहिर है ये दौर 1984 का तो है नहीं कि सरकारें कुछ भी करके निकल जाएं...हमारे देश का मीडिया आज बेहद मजबूत है और सरकारी निकम्मेपन की पोल खोलने को आतुर भी....जनता भी अब पहले से ज्यादा जागरूक है और सरकारें जवाबदेह....लिहाजा कांग्रेस को बैकफुट पर जाने के अलावा कोई चारा नजर नहीं आता।

अब राजनीति में गड़े मुर्दे कितना काम आते हैं ये तो आप समझ गए होंगे..लेकिन मुमकिन है मेरी तरह ये न समझ पाएं हों कि आखिर मोदी के गड़े मुर्दे जब जिंदा होते हैं उन्हें फायदा क्यों पहुंचा जाते हैं और कांग्रेस के गड़े मुर्दे जब कब्र से बाहर आते हैं तो पार्टी को नुकसान क्यों दे जाते हैं....समझ में आ जाए तो बताइएगा जरूर.....

Sunday 6 June 2010

प्रकाश झा की मजबूर'नीति'

राजनीति किस हद तक गंदी हो सकती है, राजनीति कैसे रंग बदल सकती है...और राजनीति कैसे एक भरे पूरे परिवार को नफरत और बदले की आग में अंगार बना सकती है....ये सब कुछ देखने को मिला प्रकाश झा की राजनीति में। हमारे देश की स्टेट पॉलिटिक्स का खाका खींचने की कोशिश में झा बहुत हद तक कामयाब रहे हैं....गंगाजल और अपहरण जैसी फिल्मों के जरिए जबरदस्त फैन फालोइंग बटोरने वाले प्रकाश झा ने इस फिल्म के बाद अपना लोहा मनवाने वालों की फेहरिस्त में और इजाफा कर दिया है। इस वीकएंड फिल्म देखकर निकला तो मन में यही ख्याल आया कि महाभारत के किरदारों की माला में आज के राजनेताओं को पिरोने का ये काम बखूबी अंजाम दिया है डायरेक्टर ने...बड़ा कैनवास, बड़ा बजट और सितारों की लंबी चौड़ी फौज....और नाना से लेकर रणबीर तक सबकी शानदार अदाकारी....मानो एक एक एक्टर इसी रोल के लिए बना हो....सिवाय एक के...

समझ नहीं पाया कि आखिर क्या मजबूरी रही होगी प्रकाश झा जैसे दिग्गज डायरेक्टर के सामने कि वो फिल्म में एक भी लाईन हिंदी में ढंग से न बोल पाने वाली कटरीना कैफ को लेने पर मजबर हुए.....वो कटरीना जो इस मजबूत फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी साबित हुईं....जिन्होंनें अपनी अल्हड़ अदाकारी से ये जता दिया कि इतनी फिल्में करने और बॉलीवुड की नंबर वन हिरोइन का तमगा हासिल करने के बाद भी उन्हें अदाकारी की कितनी समझ है...कटरीना ने इस फिल्म के जरिए उन्हें फिल्में हिट कराने का सबसे कामयाब फार्मूला मानने वाले फिल्मकारों को ये भी बता दिया है कि सीरियस रोल्स में उन्हें लेने की भूल न ही करें तो अच्छा...दो चार गाने , दो चार डांस और फिल्मों में ग्लैमर का तड़का लगाने के लिए ही उनका इस्तेमाल किया जाए तो अच्छा ..... जैसा वो अबतक करती आईं हैं....क्योंकि राजनीति में कटरीना जब जब नजर आईं उन्होंनें अपने नाकाबिलियत से दर्शकों को इस बात का ही अहसास कराया कि आप ये सोंचने की भूल न करें कि ये रिएलिटी है...हम लोग ड्रामा कर रहे हैं...तीन घंटे का ड्रामा देखिए और खुशी खुशी घर जाइए....

हिंदी में कटरीना के डायलॉग्स की डबिंग खुद उनसे कराने में प्रकाश झा इतना फख्र क्यों महसूस कर रहे थे , फिल्म देखने के बाद कम से कम मैं तो समझ नहीं पाया...क्योंकि मेरे हिसाब से ये उनके कद के डायरेक्टर की सबसे बड़ी भूल थी , अफसोस प्रकाश झा के चुनाव पर नहीं वक्त पर भी होता है..प्रकाश झा भी क्या करें...बॉलीवुड का ये वो दौर है जिसमें उम्दा अभिनेत्रियों का अकाल पड़ा हुआ है, विदेशों से अभिनेत्रियां इम्पोर्ट की जा रही हैं और यहां लाकर उन्हें स्टार बनाया जा रहा है...तभी तो राकेश रोशन जैसे दिग्गज मैक्सिकन ब्यूटी बारबरा मोरी और इम्तियाज अली गिजे़ल मोंटारियो की अदाकारी पर यहां की अदाकाराओं से ज्यादा भरोसा करते हैं..मिस श्रीलंका जैक्कलीन फर्नाडिंस एक साथ कई फिल्मों में नजर आती हैं..... आप इसे बॉलीवुड का ग्लोबलाइजेशन भी कह सकते हैं पर एक नजर अपने बॉलीवुड पर डालेंगे तो तस्वीर बहुत हद तक साफ हो जाएगी....जरा एक नजर दौड़ाइये और सोचिए आज के दौर में कौन है ऐसी अभिनेत्री जिसमें माधुरी दीक्षित की संजीदगी भी नजर आए और श्रीदेवी का चुलबुलापन भी । जो हर तरह के किरदार में ढलने का माद्दा रखती हो, जो वाकई में अपने दम पर फिल्में चलवाने का दमखम रखती हो....कटरीना से लेकर करीना तक.....और दीपिका से लेकर सोनम कपूर नए दौर की नायिकाओं में सबका ध्यान अभिनय की बारीकियां सीखने में कम, अपने बोल्ड लुक से दर्शकों को चौंकाने और साइज जीरो पर ज्यादा है......देखिए कब खत्म होता है नाकाबिल अभिनेत्रियों की मौज का ये दौर.... कब मिलती है हिंदी सिनेमा को दूसरी माधुरी ...और कब तक चलती है प्रकाश झा जैसे फिल्मकारों की मजबूर नीति।

Thursday 13 May 2010

'कुत्ता' भी शर्मिंदा है !

बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी आजकल कुत्तों से बचते फिर रहे होंगे वो क्या है कि सारी कुकुर बिरादरी उनसे नाराज चल रही है । गडकरी ने मुलायम और लालू यादव सरीखे नेताओं से उनकी तुलना जो कर दी । मुमकिन है वो सोच रहे हों कि इतने सालों की वफादारी का गडकरी नाम के इस इंसान ने आखिर ये क्या सिला दिया। संघ की पाठशाला के अगली पंक्ति के चेले रहे नए नवेले बीजेपी अध्यक्ष कह बैठे कि लालू मुलायम तो सोनिया गांधी के तलवे चाटने वाले कुत्ते हैं, मुहावरा प्रेमी गडकरी ने अब ऐसा अनजाने में कहा या जान बूझकर कह नहीं सकता , क्योंकि 'कुत्ता नहीं कुत्ते जैसा कहा' ये कहकर खेद व्यक्त कर लेने के बाद भी मेरी जब उनसे बात हुई तो अपने कहे का पछतावा तो दूर की बात वो एक बार भी ये मानने के लिए तैयार नहीं हुए कि उनसे कोई गलती हुई है। बोले मुझे जो कहना था कह दिया आप मीडिया वाले मतलब निकालते रहिए। मतलब मैने तो यही निकाला कि गडकरी मानते हैं कि बुराई कुत्ता जैसा होने में नहीं, कुत्ता होने में है ।

बहरहाल गडकरी के बयान के बाद मैने खालिस समाजवादी नेता मोहन सिंह से भी बात की। बातचीत का लबोलुआब मैने यही निकाला कि देखो इस पुराने समाजवादी बुजुर्ग नेता को वाकई में बहुत बुरा लगा होगा अपने नेता के खिलाफ गडकरी की ऐसी भाषा सुनकर...पर सुबह उठा तो लगा कि मेरी सोच गलत थी...मोहन सिंह भी 'कुत्ता' प्रेमी निकले...टीवी खोला तो शिबू सोरेन पर निशाना साधते हुए वो भी बेचारे इस बेजुबान जानवर को नीचा दिखाने में लगे थे, कह रहे थे कि वो कुत्ता कौन है जो सोनिया और कांग्रेस के तलवे चाट रहा है...शब्दों के इस्तेमाल का तरीका किसी गडकरी जैसे नौसिखिए का भले ही न हो पर तेवर वैसे ही थे...वफादारी की मिसाल कहे जाने वाले कुत्ते भी ,नेताओं की इस कड़वी जुबान पर रो ही रहे होंगे. क्योंकि इन नेताओं ने इन्हें अचानक नफरत और हिकारत का सिंबल जो बना दिया है। रही बात लालू यादव के दल आरजेडी की तो एक दिन पहले तक चैनलों पर गडकरी के खिलाफ आंदोलन की धमकी दे देकर उन्हें कोसने वाले राम कृपाल यादव गडकरी से भी एक कदम आगे निकल गए और गुस्से में तमतमाकर उन्हें छछूंदर कह बैठे। जाहिर है नेताओं के इस घमासान को देखने के बाद दलाली, घूसखोरी और गंदी राजनीति से कोसों दूर रहने वाले ये बेजुबान जानवर पसोपेश में पड़े हुए होंगे....कि आखिर हमारा नाम ये नेता बदनाम करने में क्यों लगे हुए हैं , हमने भला किसी का क्या बिगाड़ा ?

जो भी हो हमारे नेताओं की इस छिछली वाणी ने ये तो साबित कर ही दिया कि आज के इस दौर में जहां ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति जैसे पदों के लिए वहां के नेता टीवी पर सबके सामने किसी भी मुद्दे पर खुली बहस का माद्दा रखते हैं वहीं गांधी , नेहरू और मोरारजी जैसे दिग्गजों की इस धरती पर आजकल के नेताओं को विरोधी दल पर हमला बोलने के लिए इन बेजुबान जानवरों के नाम का सहारा लेना पड़ता है। उन लफ्जों का इस्तेमाल करना पड़ता है जो कहीं से भी शालीनता के दायरे में नहीं आते। जाहिर है देश की राजनीति में छिछली सोच वाले ये वो नेता हैं जिनकी लेखनी तो पहले से ही कमजोर थी अब जुबान भी बेलगाम हो गई है। बेशक ऐसे नेताओं की तादाद हर पार्टी में बेतहाशा बढ़ रही है, उम्मीद की जानी चाहिए कि वक्त के साथ साथ हमारे नेता भी बदलेंगे ।

Monday 29 March 2010

बिग बी पर बिग ड्रामा

ये क्या हो गया है कांग्रेस पार्टी को, क्यों पार्टी के सारे के सारे नेताओं को अचानक अमिताभ बच्चन तो क्या पूरे के पूरे बच्चन परिवार से अलर्जी हो गई है। हद तो तब हो गई जब कांग्रेस ने सीधे सीधे बिग बी से सवाल करते हुए ये कहा कि वो देश के लोगों को बताएं कि गुजरात दंगों और उसमें नरेंद्र मोदी की भूमिका पर उनकी राय क्या है। गोया अमिताभ न हुए ,बीजेपी के कोई नेता हो गए। अरे भई मैं पूछता हूं आप होते कौन हैं उनसे ये सवाल पूछने वाले । आखिर किस हैसियत से देश की एक पॉलिटिकल पार्टी एक नॉन पॉलिटिकल इंसान से ये सवाल पूछ रही है ? पार्टी के नेता मनीष तिवारी तीखे तेवर दिखाते हुए कहते हैं कि अगर अमिताभ बच्चन गुजरात के ब्रांड अंबैसडर हैं तो उन्हें दंगों और मोदी पर अपनी सोच जाहिर करनी होगी....पहले तो वो ये जान लें कि अमिताभ गुजरात के नहीं गुजरात टूरिज्म के ब्रैंड अंबैसडर हैं....और देश को ये बताएं कि करोड़ों लोगों के चहीते इस सितारे से पार्टी आखिर किस हैसियत से ये सवाल पूछ रही है। और अमिताभ कांग्रेस के किसी सवाल का जवाब भला क्यों दें। अगर अमिताभ बच्चन की जगह कोई और इंसान गुजरात टूरिज्म का ब्रैंड अंबैसडर होता तो भी क्या कांग्रेस पार्टी उससे ये सवाल करती ।

पिछले कुछ दिनों से लगातार अमिताभ को लेकर जिस तरह की राजनीति कांग्रेस ने की है उसने मुझे शिवसेना और एमएनएस सरीखी पार्टियों की याद दिला दी। बिना किसी बात के इस तरह के तीखे बोल बोलने का जिम्मा तो तो अभी तक देश की इन्ही पार्टियों ने अपने हाथ में ले रखा था लेकिन अब कांग्रेस वाले भी न जाने क्यों इनके नक्शे कदम पर चलने को बेताब हैं। तभी तो सी लिंक के उद्घघाटन समारोह में अमिताभ के साथ मंच पर बैठ कर ठहाके लगाने वाले कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण चंद घंटों के बाद ही उनकी बेइज्जती कर ये कहते नजर आते हैं कि अगर उन्हें पता होता कि अमिताभ यहां आने वाले हैं तो वो वहां जाते ही नहीं । मानो अमिताभ न हो गए कोई कटाऊ हो गए। सालों का रिवाज तोड़ते हुए पुणे के मशहूर मराठा साहित्य सम्मेलन के समापन समारोह से वो एक दिन पहले ही पहुंच जाते हैं इस डर से कि इस समारोह में भी मुख्य अतिथि अमिताभ बच्चन ही थे, तो कहीं फिर से उनका सामना न पड़ जाए । दलील वही कि अमिताभ से परहेज इसलिए नहीं कि वो अमिताभ बच्चन हैं , परहेज इसलिए क्योंकि वो गुजरात से जुड़े हैं , नरेंद्र मोदी से जुड़े हैं । कम ही लोग जानते होंगे कि ये वही अशोक चव्हाण हैं जिनके चुनाव प्रचार के लिए बिग बी खुद एक जमाने में नांदेड़ जा चुके हैं

2002 के गुजरात दंगे देश के माथे पर कलंक हैं , इस देश के लिए सबसे बड़ा शर्म हैं और इन दंगों में उस वक्त के और मौजूदा सीएम नरेंद्र मोदी की कितनी और कैसी भूमिका थी ये देश को बताने की जरूरत भी नहीं । लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हम तालिबान बनकर किसी को उस राज्य का पर्यटन प्रमोट करने से ही रोक दें । उस राज्य के साथ जुड़ने वाले हर एक शख्स पर सांप्रदायिक होने का ठप्पा लगा दें। देश के मुसलमानों को खुश करने में लगी कांग्रेस शायद ये भूल रही है कि ऐसा करके वो, दरअसल हर एक मुद्दे को 5 करोड़ गुजरातियों की अस्मिता से जोड़ने वाले नरेंद्र मोदी के हाथ में एक हथियार सौंप रही है , एक ऐसा हथियार जिसकी धार, धर्म की राजनीति में माहिर ये नेता अमिताभ के बहाने अपनी वेबसाइट पर कांग्रेसियों को गुजरात विरोधी और विकृत मानसिकता वाला साबित करके दिखा भी चुका है ।

Tuesday 23 March 2010

महिला आरक्षण और मुलायम की सीटी

लगता है किसी जमाने में खूबसूरत लड़कियों को देखकर सीटियां मारना मुलायम का शौक रहा है तभी नेताजी को लगता है कि महिला आरक्षण के बाद संसद में ऐसी महिलाएं आएंगी जिन्हें देखकर लोग (जाहिर है बात संसद की हो रही है तो सांसद) सीटी बजाएंगे। एक प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और केंद्रीय सरकार में देश की रक्षा की जिम्मेदारी संभाल चुके मुलायम सिंह यादव सरीखे नेता के इस आपत्तिजनक बयान को सुनकर सबसे पहले एक ही सवाल जेहन में आया । क्या थोड़े दिनों पहले तक फिरोजाबाद के गली कूचे में घूम घूमकर लोगों से वोट मांगता पूरा यादव परिवार अपनी बहू डिंपल यादव को इसीलिए संसद तक पहुंचाने का ख्वाब देख रहा था कि बहू संसद तक पहुंच जाए और लोग उसे देखकर सीटियां मारें या फिर फिरोजाबाद की सांसदी, राज बब्बर से 85000 वोटों से हारने के बाद यादव परिवार ने घर में खुशियां मनाईं होंगी कि चलो अब न तो बहू डिंपल संसद तक पहुंचेगी और ना ही कोई उसे सीटियां मारेगा, अच्छा हुआ घर की इज्जत घर में ही रह गई ।

वाकई शर्म आती है इस देश के मुलायम सरीखे नेताओं पर , रोना आता है इनकी राजनीति पर और अफसोस होता है इनकी उस सोच पर जो विकास के पथ पर सरपट दौड़ते देश की टांगे खींचकर उसे पीछे ले जाने पर तुली है । मुलायम के कद के किसी भी नेता ने इस देश में आज तक सार्वजनिक मंच से महिलाओं की इतनी बेइज्जती इससे पहले कभी नहीं की । और इसमें कोई शक नहीं कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि ये बयान देते हुए मुलायम के कठोर मन में मुस्लिम और पिछड़ों के वोट बैंक के अलावा और कुछ नहीं घूम रहा था । वैसे अच्छा ही है जो खुद को महिला विरोधी कहने से बिदकने वाले मुलायम ने अपना असली चेहरा दुनिया को दिखा दिया.... द्रौपदी को नारी शक्ति का पर्याय बताने वाले प्रख्यात समाजवादी राम मनोहर लोहिया आज होते तो रो रहे होते अपने इस समाजवादी चेले की सोच पर, खास बात ये है कि मुलायम ने ये शर्मनाक बयान लखनऊ में इन्हीं डा.लोहिया की सौंवी जयंती के मौके पर दिया जिन्हें वो अपना पुरोधा बताते हुए राजनीति करते हैं लेकिन अस्ल में उनके विचारों को कबका दफना चुके हैं ।

मुलायम कहते हैं अगर महिला आरक्षण लागू हो गया तो महिलाएं चुन कर आएंगी उद्योगपतियों और बड़े अफसरों की और संसद में लड़के उन्हें देखकर सीटियां बजाएंगे । कोई समझाए इन्हें कि आखिर 33 फीसदी आरक्षण मिलने के बाद इन्हें अपनी पार्टी में गरीब गुरबा पिछड़ी महिलाओं को टिकट देने से रोका किसने है जो आरक्षण के नाम से बिलबिलाकर , तमाम मर्यादाओं को लांघते हुए वो ऐसा बयान दे रहे हैं वो भी उस दौर में जब मौजूदा 15 वीं लोकसभा में देश के लोगों ने 59 महिला सांसदों को संसद में अपनी नुमाइंदगी का हक दिया है । क्या मुलायम सिंह यादव अपने इस शर्मनाक बयान के बाद इन 59 महिला सांसदों में से अपनी पार्टी की 4 सांसदों की भी आंखों में आंखे डालकर देखने की कुवत रख पाएंगे , क्या वो उनसे पूछने की हिम्मत कर पाएंगे कि अब तक कितनी बार संसद के अंदर उन्हें सांसदों ने सीटियां मारी हैं ।

नेता जी जागिए और समाजवाद की आड़ में सिर्फ मुसलमानों और पिछड़ों की राजनीति करना बंद कीजिए क्योंकि अब देश की जनता इस तरह की ओछी राजनीति से बाज आना चाहती है। हाज़में की गोली खाइए और इस सच्चाई को हज़म कीजिए कि आपके और आप जैसे चंद नेताओं की नौटंकी के बाद भी राज्यसभा में महिलाओं को संसद और विधानसभाओं में एक तिहाई आऱक्षण मिलने का रास्ता साफ हो चुका है और वो दिन दूर नहीं जब देश की जनता 180 महिलाओं को अपना सरपरस्त चुनकर लोकसभा तक पहुंचाने वाली है । वाकई इंतेजार रहेगा उस दिन का क्योंकि वो दिन महिलाओं को हमेशा दबा कर रखने वाली इस पुरूषवादी सोच पर सबसे बड़ा तमाचा होगा..आमीन

Sunday 21 March 2010

हम नहीं सुधरेंगे !

संडे को फनडे कहा जाता है आमतौर पर इस दिन लोगों की छुट्टियां होती हैं...पर मैं उन खुशनसीबों में से नहीं..बहरहाल इस रोने धोने का तो कभी अंत होगा नहीं...सो आगे बढ़ते हैं । मन मार कर घर से निकला और ऑफिस पहुंचते ही एक खौफनाक खबर मिली किंगफिशर एअरलाइंस में बम की । खुदा का लाख लाख शुक्र था कि थोड़ी देर में ही ये साफ हो गया कि बम को डिफ्यूज कर दिया गया है और सभी यात्री बाल बाल बच गए पर बार बार जेहन में ये ख्याल आ रहा था कि आज क्या हो सकता था, फिर सोचा कि आतंकवादी चाहे जितनी धमकी दे लें हम नहीं बदलेंगे , आंतकवाद हमारा चाहे जितना कुछ बिगाड़ लें हम नहीं बदलेंगे। ये जानते हुए भी कि मौजूदा दौर के आंतकवाद में सबसे बड़ा खतरा हवाई सुरक्षा को है हम नहीं बदलेंगे । अगर ऐसा न होता तो अखबार में लिपटा एक देसी बम तिरूअनंतपुरम से 753 किलोमीटर की हवाई यात्रा करता हुआ बैंगलोर न पहुंच जाता । प्लेन में बम रखने की साजिश किसकी थी...क्या ये किसी आतंकी संगठन का काम था...या फिर किसी सिरफिरे की करतूत ये तमाम सवाल फिलहाल बेमानी हैं । सबसे बड़ा सवाल फिलहाल यही है कि हम कब सुधरेंगे ?

देश के लिए नासूर बन चुके देसी विदेशी आतंकियों की हवाई हमले की धंमकी और देश भर के सारे एअरपोर्ट को अलर्ट पर रखने के बाद भी न तो कुकुरमुत्ते की तरह उग आईं प्राइवेट एअरलाइंस के सेक्योरिटी स्टाफ के रवैये में कोई बदलाव आया है और न ही देश भर में एअरपोर्ट की सुरक्षा का जिम्मा संभालने वाले सीआईएसएफ के जवान ही चौकन्ना हुए हैं । जरा सोचिए हवा में जमीन से हजारों फीट ऊपर अगर ये बम फट जाता तो क्या होता ... सोच कर भी मेरी रूह कांप उठती है तो इस विमान से तिरूअनंतपुरम से बैंगलोर तक का सफर तय करने वालों पर क्या गुजरी होगी जब उन्हें पता चला होगा कि उनके बैगेज के साथ साथ एक जिंदा बम भी इस सफर में उनका हमसफर था...यकीनन सुरक्षा में इस तरह की चूक करने वालों का जुर्म उन आंतकियों से किसी मायने में कम नहीं है जो जगह जगह धमाके कर मासूमों की जान लेने में अपना फख्र समझते हैं , अगर ये साबित हो जाए कि किसी सेक्योरिटी स्टाफ ने जानबूझकर प्लेन में बम रखने वाले का साथ दिया। ये बात बार बार जेहन में इसलिए आती है क्योंकि बिना किसी स्टाफ के मिले ऐसा कैसे संभव हो सकता है

जब भी हम किसी हवाई यात्रा के लिए एअरपोर्ट पर जाते हैं तो प्लेन में चढ़ने से पहले यात्रियों और उनके सामान की दो बार स्क्रीनिंग की जाती है । एयरपोर्ट में दाखिल होते ही यात्रियों और उनके सामान को मेटल डिटेक्टर और स्कैनर से जांचा जाता है ये काम अममून प्राइवेट एअरलाइंस के सेक्योरिटी स्टाफ का होता है , दूसरे चरण में सीआईएसएफ के जवान यात्री की पूरी तलाशी लेते हैं...यात्री के हैंड बैगेज की एक्सरे जांच होती है...किसने क्या किया और क्यों किया ये जांच का विषय हो सकता है लेकिन इतना तो तय है कि चूक इन दोनों से हुई है और कोई भी अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकता । दरअसल मानिए या न मानिए अब वक्त आ गया है कि विदेशी एअरपोर्ट्स पर अपने वीवीआईपीज़ की सुरक्षा जांच से बिलबिलाकर बयानबाजी करने की बजाय हम अपनी गिरेबान में झांक कर देखें और अपनी खामियों पर पर्दा डालने की बजाए उन्हें जड़ से खत्म करने की सोचे ताकि फिर कभी कोई देश की सुरक्षा से इतना बड़ा खिलवाड़ करने की जुर्रत न कर पाए , ताकि इस देश के अंदर हम खुद को सुरक्षित महसूस कर पाएं और मेरे जैसा पत्रकार कभी ये न कह पाए कि चाहे जो कुछ हो जाए हम नहीं सुधरेंगे ।

Friday 26 February 2010

हुसैन, तुम माफी मत मांगना

GUEST BLOG BY- PRABHAT SHUNGLU

मकबूल फ़िदा हुसैन को कतर की नागरिकता दिये जाने पर एक बार फिर से उन्हे खोने का ऐहसास हो रहा। लेकिन राजनीति की बिसात पर हुसैन बस मोहरा बन कर रह जाते हैं। आज सेक्यूलरिज़म की दुहाई देने वाले चुप हैं। ये वही लोग हैं जिन्होने सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को सरकारी दस्तावेजों के विशाल डम्पिंग ग्राउंड में दफ्न कर दिया है। ये हिम्मत कौन दिखाएगा कि उस रिपोर्ट को बाहर निकाल कर, उसे झाड़ पोंछ कर उसपर सिरे से अमल किया जाए। हुसैन से अलग जस्टिस सच्चर ने जो देश की अक़लियत के विकास का एक्स-रे निकाला उसमें देश की सेक्यूलर छवि तार-तार दिखी।
सेक्यूलरवाद की दुहाई देने वाला ये समाज अक्सर कट्टरवादी हो-हल्ला करने वालों के सामने घुटने टेकता देखा गया। सरकारी तंत्र भी नपुंसक बन जाता है। यदि ऐसा न होता तो हुसैन को दुबई जाकर न बसना पड़ता। महाराष्ट्र के पंढरपुर की धरती पर वो दोबारा लौटते जहां उन्होने जन्म लिया था। लेकिन महाराष्ट्र की धरती को तो मातोश्री विचारधारा वाले बिगड़ैल शिवसैनिक सींच रहे हैं। बाकी जगहों पर हुसैन के खिलाफ बजरंगियों ने मोर्चा खोला हुआ था। हम उन जैसे कुंठित विचारधारा के लोगों को भी सह रहे हैं। हमने उनके सामने भी घुटने टेके, हम तो उनसे भी डर गए जो ये बता रहे थे कि किताब धर्म और मज़हब का मज़ाक उड़ा रही। इसलिये हमने वो किताब बिना पढ़े ही बैन कर दी। फिर तस्लीमा नसरीन के वीज़ा की मियाद इसलिये नहीं बढ़ाई कि वो और ज्यादा रहीं तो एक वोट देने वाला एक तबका नाखुश हो जाएगा। पश्चिम बंगाल की सीपीएम सरकार ने तो उन्हे राज्य से ही तड़ीपार का हुक्म दे दिया। हमने प्रूव कर दिया कि हम पूरी तरह से सेक्यूलर हैं - हुसैन को दुबई भेजकर, तस्लीमा को तड़ीपार कर और सलमान रूश्दी की किताब पर प्रतिबंध लगाकर। लेकिन यही हमारे सेक्यूलरिज्म का दोमुंहापन है, यही हमारी तमाम सरकारों का दोमुंहापन है और यही दोमुंहापन हमारे समाज में भी व्याप्त है।
चीन में सरकारी आतताइयों के खिलाफ वहां का युवा वर्ग जब खड़ा हुआ तो तिआनन मेन चौराहे की तस्वीरों नें दुनिया को हौसला दिया कि आवाज़ दबाए नहीं दबाई जा सकती। लेकिन हमारी भारतीय परंपरा में न जाने कब ये वाइरस घर कर गया कि जो हो रहा उसे होने दो। बदलने की कोशिश मत करो। यही कारण था कि इमरजेंसी के दौरान कुछ आवाज़े तो दबा दी गईं और कुछ खुद ही शांत पड़ गईं। जो शांत पड़ गये वो इंदिरा के उस रौद्र रूप के कायल हो गए और उनकी शान में कसीदे भी गढ़े। वो भी उसी तरह की एक्सट्रीम विचारधारा थी जो मकबूल फिदा हुसैन को वतन छोड़ने के लिये मजबूर कर देती है। हम अतिवाद को लेकर सहनशील होते जा रहे जबकि तरक्की की राह पर चलने से पहले अतिवाद का त्याग पहली शर्त होनी चाहिये थी।
जब 2004 में यूपीए गठबंधन बना तो इस गठबंधन में देश की तमाम छोटी बड़ी पार्टियां जुड़ी। कश्मीर से चेन्नई तक। असम से आंध्र तक। तमाम पार्टियों ने मिलकर हुकूमत करने का प्लान बनाया। लेकिन जो गठबंधन सेक्यूलरिज्म और विकास के मुद्दे पर सत्ता पर काबिज हुआ उसने भी हुसैन को भारत वापस लाने के लिए कुछ नहीं किया। बल्कि उसी के शासन काल में ही हुसैन को कट्टरपंथी हिंदु संगठनों की धमकियों के चलते हिंदुस्तान छोड़ना पड़ा। इन कट्टरपंथी संगठनों नें हुसैन पर हिंदु देवी-देवताओं की मर्यादा के साथ छेड़छाड़ का आरोप लगाते हुए देश भर की विभिन्न अदालतों में मुकद्दमें ठोंक दिये। लेकिन बात सिर्फ अदालत तक रूकती तब भी ठीक था। हुसैन को धमकियां मिलने लगीं और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। हुसैन को शायद सरकार का ये छद्म सेक्यूलरवाद रास नहीं आया और इसलिये उन्हे वतन छोड़ने का कड़ा फैसला लेना पड़ा। सेक्यूलरिज़्म के नाम पर सॉफ्ट हिंदुत्व का मुखौटा ओढ़ने का आरोप कांग्रेस पर हमेशा लगता आया है। ये एक ऐसा आरोप है जो कांग्रेस पार्टी ने सत कर लिया है। इसलिये इसको लेकर उसकी संवेदनशीलता सुन्न हो चुकी है।
आज जब कतर की राजशाही ने 95-वर्षीय हुसैन को कतर की नागरिकता बतौर तोहफा भेंट की है तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये। उन्होने कतर की नागरिकता के लिये एप्लाई नहीं किया था। वैसे भी हुसैन पिछले चार साल से हिंदुस्तान के रेसीडेंट होते हुए भी नॉन-रेसीडेंट इंडियन की ज़िदगी बसर कर ही रहे थे। लक्ष्मी निवास मित्तल और लॉर्ड स्वराज पॉल की तरह अब वो किसी भी देश के नागरिक बनें हमें क्या। एक भारतीय अंग्रेज़ी दैनिक के संपादक को भेजे एक छोटे से संदेश में उन्होने अपने नाम के आगे 'द इंडियन ओरिजन पेंटर' लिखा है और कहा है कि इस भेंट से उनका मान बढ़ा है। इन दिनों हुसैन भारतीय सभ्यता और अरब सभ्यता के थीम पर अपने दो अभिन्न प्रोजेक्ट में जुटे हैं। भारतीय सभ्यता पर नई पेंटिग्स का प्रोजेक्ट हुसैन को विदेशी धरती पर रहकर पूरा करना पड़ रहा सेक्यूलरिज़म और सहिषुणता पर इससे बड़ा मज़ाक क्या होगा।
चीन के ह्वेन त्सांग, मोरोक्को के इब्न बतूता और आज के उज़बेकिस्तान के अल-बरूनी से ही हमें भारतीय समाज और उस समय के इतिहास के सुनहरे पन्नों को पढ़ने का मौका मिला। इंडियन ओरिजन के कतरी नागरिकता वाले मकबूल फ़िदा हुसैन
अब एक विदेशी कूचे से हिंदुस्तान और पंढरपुर का इतिहास रंगेंगे। उनके इस प्रोजेक्ट में मां सरस्वती पल पल उनके साथ हो, मां दुर्गा उनके साहस में और इज़ाफा लाए और भगवान विठ्ठल पंढरपुर के पाट खोलकर खुद उनपर स्नेह बरसायें ये हर उस हिंदुस्तानी की कामना है जिसे जात-पात, प्रांतवाद और मज़हब के खांचे में रखकर उसे बांटने की चौतरफा साजिश रची जा रही है। लेकिन वो डटा हुआ है और घुटने नहीं टेकना चाहता। आज भी हुसैन के वापस लौटने की शर्त लगाई जा रही कि माफी मांग लें और वतन लौट आएं। हुसैन साहब, आप भले ही हिंदुस्तान न लौटें पर धर्म के इन ठेकेदारों से कतई माफी मत मांगिएगा। भारतीय सभ्यता की यही पहचान है।
(लेखक IBN7 में एडिटर स्पेशल एसाइनमेंट हैं उनसे prabhatshunglu@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है )

Saturday 20 February 2010

बदल गई बीजेपी ?

आखिर ये क्या हो गया है बीजेपी को, लगातार दो लोकसभा चुनावों में मात खाने के बाद बदले बदले से क्यों नजर आ रहे हैं पार्टी के तेवर । संघ के पसंदीदा नए नवेले अध्यक्ष नितिन गडकरी तो मुसलमानों को साथ लाने की अपील कर रहे हैं वो कह रहे हैं कि मुसलमान भाई आगे आएँ और सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल कायम करते हुए विवादित स्थल पर एक भव्य राम मंदिर बननें दें । राम मंदिर आंदोलन के हीरो कहलाने वाले आडवाणी के सामने ही मंच पर दिल बड़ा करते हुए वो ये भी कहते हैं कि अगर बगल की कोई जगह मिल गई तो बीजेपी एक भव्य मस्जिद का भी निर्माण करवाने में पूरा सहयोग करेगी। आप ही बताइए दिसंबर 1992 के बाबरी विध्वंस के बाद क्या बीजेपी के पास इस अपील का नैतिक अधिकार है । पर जो भी हो जमीन आसमान का फर्क नजर आ रहा है बीजेपी के चाल , चरित्र और चेहरे में ,बात भले ही घुमा फिरा कर वही की गई हो पर इस बार पार्टी नेताओं के बयान में 'मंदिर वहीं बनाएंगे ' का उग्र हिंदुवाद नदारद है। वो उग्र हिंदुवाद जो आज भी देश के एक समुदाय को डराता है। वो उग्र हिंदुवाद जो अक्सर खुद को देश के कानून से ऊपर समझ बैठता है और जोश में होश खोकर 6 दिसंबर 1992 को देश के गौरवमई लोकतंत्र में एक काला अध्याय जोड़ देता है। हिंदुवादी पार्टी से धर्मनिरपेक्ष पार्टी बनने की दिशा में ये बीजेपी का पहला कदम है। उसे इस बात का देर से ही सही अहसास हो गया है कि देश के 14 करोड़ मुसलमान भी इस देश का अहम हिस्सा हैं और बिना उनको साथ लिए पार्टी का कल्याण मुमकिन नहीं है।

लेकिन अपसोस होता है ये जानकर कि सादगी का नाटक कर पांचसितारा तंबुओं में इतने दिनों की माथापच्ची करने के बाद भी पार्टी मंदिर-मस्जिद से ऊपर नहीं उठ पाई । इतने दिनों के चिंतन के बाद भी बीजेपी के नेता सिर्फ इस नतीजे पर पहुंच पाए कि जनता को एक मंदिर के साथ साथ मस्जिद का भी एक लॉलीपॉप पकड़ा देना चाहिए । आप ही बताइए क्या बढ़ती मंहगाई और मंदी का मार झेल रही देश की जनता को इस बात से कोई वास्ता है , जिस देश की आधी आबादी युवा हो वो देश के विकास, बेहतर शिक्षा व्यवस्था और बेरोजगारी से निजात दिलाने की फ्यूचर प्लानिंग को तवज्जो देगी या एक ऐसी पार्टी पर भरोसा करेगी जो आज भी 1989 की अपनी 21 साल पुरानी सोच से उबर पाने में नाकाम है । क्या वो कभी एक ऐसी पार्टी का साथ देगी जो खुद को बदलना भी नहीं चाहती और बदला हुआ नजर भी आना चाहती है ।

जरा सोचिए इससे पहले क्या हमारे देश का विपक्ष कभी इतना कमजोर रहा कि सरकार की गलत नीतियों का माकूल जवाब भी न दे पाए। ऐसे वक्त में जब देश में पिछले 6 सालों से कांग्रेस लेड यूपीए की सरकार हो और महंगाई ने देश के हर आमो खास की कमर तोड़ रखी हो बीजेपी इस मुद्दे को क्या इमानदारी से उठा पाई । देश की जनता को क्या ये बता पाई कि एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री बढ़ती इनफ्लेशन रेट को रोक पाने में इतने लाचार क्यों नजर आते हैं । नहीं....बिल्कुल नहीं ,क्योंकि काफी दिनों से सत्ता सुख का आनंद न भोगने वाली बीजेपी शायद अब जनता की नब्ज पकड़ना भी भूल गई है । और यही वजह है कि इन तमाम ज्वलंत मुद्दों को छोड़ , आरएसएस के कट्टर हिंदुवादी चेहरे से कभी खुद को करीब और कभी दूर साबित करने के अंतर्द्वद में फंसे पार्टी के नेता अब धर्मनिरपेक्ष होने का दिखावा कर रहे हैं... थोड़ा डरते हुए क्योंकि आडवाणी का जिन्ना प्रकरण और धर्मनिरपेक्षता का चोला ओढने की जो कीमत उन्होंने चुकाई वो कोई भी अपने जेहन से निकाल नहीं पाया है।

उम्मीद तो थी कि एसी टेंट में ही सही लेकिन प्रकृति के थोड़े करीब आकर , नए युवा अध्यक्ष की अगुवाई में ये नेता कुछ नया सोचकर एक नई शुरूआत करेंगे पर बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि पार्टी की नेशनल एक्जेकेटिव में सुबह शाम चले मंथन के बाद भी ये नेता अपनी पार्टी के लिए अमृत नहीं निकाल पाए ।

Tuesday 16 February 2010

ठाकरे की ठसक का अंत

अब ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों का विरोध नहीं करेंगे बाल ठाकरे और उनके गुंडे, जल्दबाजी में नहीं बहुत सोच समझ कर फैसला किया है ठाकरे ने। मन में एक उधेड़बुन सी चल रही होगी क्या करें क्या न करें शाहरूख ने ऐसी बैंड बजाई कि कहीं के नहीं रहे, किस मुंह से किसी बात का विरोध करें , पता नहीं कोई मानेगा भी या नहीं , पता नहीं कोई डरेगा भी या नहीं। कहीं नफरत के सौदागर बन चुके शिवसैनिकों को फिर मुंह की न खानी पड़ जाए। कहीं उल्टे जनता का विरोध न सहना पड़ जाए। शरद पवार से ठाकरे की मुलाकात का जिक्र इसलिए नहीं कर रहा क्योंकि ठाकरे के फैसले का इससे कोई ताल्लुक नहीं है अगर पवार की दोस्ती की वजह से ही फैसला बदलना था तो कल तक शिवसेना के तमाम गुंडे ये कहते न फिरते कि हम तो ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों को मुंबई की धरती पर कदम तक नहीं रखने देंगे । इस वक्त ठाकरे के इस नए फैसले से दो बातें हुईं हैं एक तो कांग्रेस के सामने ये जताने निकले पवार की अकड़ ठंडी पड़ गई है कि वो उसके दुश्मन नंबर 1 ठाकरे के कितने नजदीक हैं और मौका पाकर पासा पलटने की कुवत रखते हैं । दूसरे और सबसे अहम ये कि आम जनता को ये पता चल गया है कि अगर इन कागज के शेरों के छिटपुट विरोध और मारपिटाई को तवज्जों न दी जाए तो ये किसी काम के नहीं रह जाएंगे।

असल बात तो यही है कि शिवसेना नाम के गुब्बारे की हवा अब निकल चुकी है। ठाकरे की ठसक का अंत हो चुका है । कहा था ना माई नेम इज खान के रिलीज के वक्त शाहरूख और मुंबईकरों के करारे तमाचे ने शिवसेना को कहीं का न छोड़ा, अब उनसे कोई नहीं डरेगा, अब उनकी कोई नहीं सुनेगा, अब उनकी नहीं चलेगी , वही हो रहा है। दरअसल शिवसेना को अब ये डर सताने लगा है कि कहीं शाहरूख विरोध की तरह इस आंदोलन की भी हवा न निकल जाए और बूढ़े ठाकरे को पूरे देश के सामने एक बार फिर शर्मसार न होना पड़ जाए । सो भलाई पैर वापस खींचने में ही है । वो समझ गई है कि ये पब्लिक है सब जानती है उसे पता है कि ऑस्ट्रलियाई खिलाड़ियों के यहां आकर खेलने न खेलने से वहां भारतीय छात्रों पर हो रहे नस्लवादी हमलों पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। उसे पता है कि इस तरह के इमोशनल मुद्दे भड़काकर शिवसेना अपनी खोई जमीन हासिल करने की फिराक़ में है। उसे पता है कि शिवसेना की क्षेत्रवाद से लबरेज विचारधारा को अगर अमली जामा पहना दिया गया तो इस देश की अखंडता तार तार हो सकती है ।

जनता होशियार हो चुकी है शाहरूख का साथ देकर उसने अपना स्टैंड भी साफ कर दिया है अब बारी हमारी है , मीडिया की है जिसे अब शिवसेना और एमएनएस के गुंडों को उनके दायरे में समेटने का काम शुरू कर देना चाहिए । उनके बयानों को पूरे देश की जनता तक पल भर में पहुंचाने की अपनी आदत से बाज़ आना चाहिए । गालियों से भरे और अलोकतांत्रिक धमकियों का पिटारा बन चुके शिवसेना के मुखपत्र सामना के एडीटोरियल में टीवी न्यूज की सुर्खियां ढूंढने वाले पत्रकारों को भी अब ये समझ लेना चाहिए कि देश की जनता अब ठाकरे के तीखे तेवरों और जहरीले बाणों से बोर होकर तंग आ चुकी है। लिहाजा मुंबई की दूसरी अहम खबरों पर तवज्जों देना सीख लें।

Sunday 14 February 2010

'Khan' Repaired Almost Everything

वीकएंड पर फिल्में देखना मेरा शौक है पर अक्सर मसरूफियत की वजह से वक्त नहीं मिलता सो मन मसोस कर भी रहना पड़ जाता है...लेकिन इस बार फ्राइडे नाइट को ऑफिस से निकला तो थकान का अहसास न के बराबर था और अक्सर फैसला लेने की घड़ी में डबल माइंड रहने की मेरी आदत भी रफूचक्कर थी । फर्स्ट डे फर्स्ट शो नहीं तो क्या हुआ । फैसला लिया जा चुका था कि इंतजार बिल्कुल नहीं....माई नेम इज खान तो आज ही देखूंगा...ऐसा भी नहीं कि मैं शाहरूख का बहुत बड़ा फैन हूं लेकिन जब दिन में सौ बार किसी फिल्म से जुड़ी ब्रेकिंग न्यूज देनी पड़े तो उसके लिए चाहत तो अपने आप ही जग जाती है...न जाने क्यों ये लग रहा था कि भई कुछ तो खास होगा इस फिल्म में...ये जानते हुए भी कि फिल्म के निर्देशक करन जौहर हैं जिनकी इससे पहले की फिल्में चाहे वो कुछ कुछ होता है , हो 'कभी खुशी कभी गम' हो या फिर कभी अलविदा न कहना न जाने क्यों मुझे एक जैसी लगीं । लगा एक ही फिल्म चले जा रही हो.....फिर भी इस फिल्म को देखने का बड़ा मन था.....खैर परिवार के साथ फिल्म देखने पहुंचा और जब बाहर निकला तो मन में बहुत सारी चीजें क्रिस्टल की तरह साफ हो चुकी थीं.....

शाहरूख के हाथों में '' रिपेयर ऑलमोस्ट ऐनीथिंग " का प्लैकार्ड देखकर पहली बात जो मन में आई वो थी कि वाकई शाहरूख ने अपनी इस फिल्म के जरिए सब कुछ रिपेयर कर डाला....शिवसेना की हिटलरशाही, ठाकरे का गुरूर, बॉलीवुड का डर, भगवा गुंडों की गुंडागर्दी, और आम जनता में बसा उनका खौफ । ये खान हर मोर्चे पर कामयाब हुआ, जरा सोचिए क्या इससे पहले बॉलीवुड के किसी पठान या बच्चन ने इतनी हिम्मत दिखाई थी कि ठाकरे की सत्ता को चुनौती दे....नहीं, कभी नहीं...हमेशा से ही बॉलीवुड इनकी सत्ता के आगे नतमस्तक होता आया है । लेकिन शाहरूख ने इस बार ठाकरे को बता दिया कि उनका पाला एक मर्द से पड़ा है । ये सब सुनने के बाद शाहरूख को अगर आप बॉलीवुड का इकलौता मर्द कहने की सोच रहे हैं तो मैं आपके साथ हूं ।

मनोज देसाई जैसे सिनेमामालिकों या कहें शिवसेना प्रमुख के इक्का दुक्का चमचों ने ठाकरे का टेरर फैलाने की भरपूर कोशिश की और थोड़ी देर के लिए ये जरूर लगा कि अब पूरे महाराष्ट्र में फिल्म नहीं चल पाएगी और फिल्म के निर्माताओं का कम से कम 45-50 करोड़ का नुकसान तय है । पर ये हम सबकी भूल थी..हम भूल गए थे जनता की ताकत...हम भूल गए थे कि जनता हमेशा सच के साथ होती है । और इसीलिए हमें ये लगने लगा था कि मुंबई को अपनी ज़रखरीद जागीर समझने वाले चंद गुंडों से डरकर जनता फिल्म देखने थिएटर नहीं जाएगी। खुदा का शुक्र है कि ऐसा नहीं हुआ। हो जाता तो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र तार तार हो जाता....शुक्र है उन मुंबईकरों की स्पिरिट का जो पूरे परिवार के साथ फिल्म देखने निकले और नफरत की राजनीति करने वालों को एक करारा तमाचा जड़ते हुए उन्हें पानी पानी कर दिया

वैसे खुद को स्वयंभू शेर डिक्लेयर करने वाले ठाकरे को गीदड़ साबित करने के अलावा खान एक और मोर्चे पर बेहद सफल रहे और वो मोर्चा था ये फिल्म .. शाहरूख ने अपनी इस फिल्म के जरिए देश को मोहब्बत का एक नायाब तोहफा दिया । गोया किंग खान को फिल्म बनाते वक्त ही पता हो कि ये बवाल होने वाला है और उसी वक्त उन्होंनें रील के साथ रियल क्लाईमेक्स भी तैयार कर लिया । वाकई ये फिल्म खान बनाम ठाकरे की , मोहब्बत बनाम नफऱत की इस जंग का क्लाईमेक्स ही थी। फिल्म का एक एक सीन बड़ी शिद्दत के साथ फिल्माया गया नजर आया और बड़े दिनों बाद लगा कि किसी ने दिल से कोई फिल्म बनाई है । कोई भला कैसे भुला सकता है फिल्म में शाहरूख की मां का वो डायलॉग कि - बेटा इस दुनिया में सिर्फ दो ही तरह के लोग होते हैं एक अच्छे और दूसरे बुरे। कैसे भुलाया जा सकता है वो सीन जिसमें एक सफेदपोश आतंकवादी मस्जिद के अंदर बैठकर नौजवानों को खुद की गढ़ी हुई इस्लाम की परिभाषा से बरगला रहा होता है और रिजवान खान की सही इस्लाम की समझ उसे पल भर में सबकी नजर में शैतान बना देती है। सीधा सबक ये कि जो कोई भी इस्लाम को सही से समझ चुका है , पढ़ चुका है वो दहशतगर्दों के बहकावे में कभी आ ही नहीं सकता । सबक ये कि इस दुनिया में मोहब्बत से बड़ा कोई मजहब है ही नहीं ।

वाकई शाहरूख आज तुम्हारे लिए मेरे दिल में इज्जत और बढ़ गई, रील और रियल लाइफ दोनों के जरिए तुमने बता दिया कि अगर किसी का दिल जीतना है तो उससे मोहब्बत करना सीखो और अगर खुद का बेड़ा गर्क करना है तो नफरत फैलाओ। मुझे ये कहते हुए कोई शक नहीं कि शाहरूख का माफी न मांगने का ये स्टैंड और लाख धमकियों के बाद घर से बाहर निकल कर यूं जनता का उसे सिर आंखों पर बिठाना महाराष्ट्र के चंद शहरों तक सिमटी ठाकरे की सत्ता के ताबूत की आखिरी कील साबित होगा । क्योंकि आज के बाद ठाकरे बंधु किसी फिल्मकार पर बवाल काटने के बाद उसकी रिलीज रुकवाने का सिर्फ सपना ही देखेंगे यकीन जानिए ये कोई छोटी बात नहीं है ...क्योंकि उनकी ये हार ही देश में लोकतंत्र की सबसे बड़ी जीत है ।

Tuesday 2 February 2010

न्यूज़एंकर बनना है ?

सुबह होती है शाम होती है जिंदगी यूं ही तमाम होती है पर एक न्यूज चैनल के एंकर की जिंदगी यूं ही नहीं तमाम होती...क्योंकि उसके पास करने के लिए बहुत कुछ नया होता है...जानने के लिए बहुत कुछ होता है और वो कितना जानता है ये दुनिया को बताने के लिए बहुत कुछ होता है....आगे बढ़ने से पहले बताता चलूं कि मैं जिस न्यूज एंकर की बात कर रहा हूं उसकी छवि एक जमाने में दूरदर्शन पर अवतार की तरह नजर आने वाले और देश को देश के बारे में जानकारी देने के एकमात्र साधन माने जाने वाले वेद प्रकाश ,शम्मी नारंग और सलमा सुल्तान जैसे देवी देवताओं से बिल्कुल अलग है....ये आज का न्यूज एंकर है जिसे सड़क पर निकलने में कोई नहीं पहचानता..जिसके पास खबरें पढ़ने के दौरान रिफ्रेंस के लिए टेलीप्रॉम्पटर यानि टीपी नाम का हथियार तो है लेकिन उसका इस्तेमाल करने का वक्त कम ही मिलता है क्योंकि ये ब्रेकिंग न्यूज का जमाना है...खासतौर पर जो न्यूज एंकर्स दिन के स्लॉट में एंकरिंग करते हैं उनके लिए तो ये बात सौ फीसदी सत्य है....हर दो मिनट पर एक ब्रेकिंग न्यूज ...कभी हंगामा...कभी लाठी चार्ज.....कभी टीमइंडिया का सेलेक्शन, कभी हार कभी जीत, कभी खिलाड़ियों की चोट , कभी किसी राजनैतिक दल का हंगामा, कभी किसी बॉलीवुड या टीवी एक्टर का प्रमोशनल इंटरव्यू......तमाम ऐसी खबरें जिनमें डेस्क के सहयोग से आपको गिनी चुनी 2-4 लाइनें लिखीं मिल गईं तो गनीमत समझिए.....अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि ऐसे में आपको हर विषय की कितनी जानकारी होनी चाहिए कि आप 10-12 मिनट तक एक दो लाइनों की खबर को घसीटने का बूता अपने अंदर पैदा कर पाएं । लबोलुआब ये कि तमाम न्यूज पेपर्स का घुट्टा लगाने के अलावा कोई शॉर्टकट आपको कभी भी मुश्किल में डाल सकता है ।

ये हाल तो तब है जब डेस्क पर बैठे प्रोड्यूसर्स ब्रेकिंग खबर आते ही चीते की फुर्ती दिखाते हुए उसे लिख मारे.....कई बार तो ये लाइनें भी लिखी हुईं नहीं पीसीआर के शोरशराबे के बीच कानों में डायरेक्ट मिलती हैं , इसीलिए कहता हूं आज के एंकर का दिमाग तेज होने के साथ साथ कानों का तेज होना भी अत्यंत जरूरी है। क्योंकि अगर इस शोरगुल में आपने वो लाइनें मिस कर दीं तो समझिए हो गया कांड। फिर तो आपके दर्शक की गालियों से आपको कोई नहीं बचा सकता। हर कोई यही कहेगा कि एंकर ने होमवर्क नहीं किया । हो सकता है स्टूडियो की सीढियां उतरते उतरते बॉस भी झिड़क दे कि इतने सीनियर हो गए हो अभी भी सिचुएशन संभालना नहीं आया, न जाने कब सीखोगे.....

कहने का मतलब ये कि आज के दौर में लाइव न्यूज एंकरिंग करना तलवार की धार पर चलने से किसी मायने में कम नहीं है....अगर आप चाहते हैं कि लोग आपको एक अच्छे और समझदार एंकर के रूप में जानें। वरना ये वो जगह है जहां इक्का दुक्का गलतियों पर निठल्ला होने का तमगा मिलते देर नहीं लगती और एक बार अगर दर्शकों के बीच आपकी ऐसी छवि बन गई तो समझ लीजिए , चाहकर भी उस इमेज को तोड़ना आसान नहीं होगा.....बिल्कुल वैसे ही जैसे चंद नौटंकिया करने के बाद राखी सावंत के घर में अगर सच में भी डाका पड़ जाए तो लोग उसे पब्लिसिटी स्टंट ही समझेंगे उससे ज्यादा कुछ नहीं......

और हां ये तो बात हुई सुबह या दिन के स्लॉट्स में एंकरिंग करने वाले एंकरों की लेकिन शाम 5 बजते ही प्राइम टाइम के शुरू होने के बाद बुलेटिन्स की कमान संभालने वाले एंकरों की दिक्कतें भी कम नहीं हैं । भले ही ब्रेकिंग न्यूज का प्रेशर कुछ हद तक कम हो जाए लेकिन परेशानियां यहां भी हैं । पहली बात तो ये कि 5-6 साल से कम के एक्सपीरिंयस के बिना इस स्लॉट में एंकरिंग मिलना ही नामुमकिन सा है । दूसरे ये कि प्राइम टाइम एंकर से उम्मीद की जाती है कि उसे किसी भी खबर के हर पहलू की जानकारी होगी , हर खबर के इतिहास से लेकर भूगोल तक, ए से लेकर ज़ेड तक उसे पता होगा ही। जाहिर है हर बड़ी खबर पर जब बड़े बड़े संपादकों, नेताओं , और अभिनेताओं के साथ चर्चा करनी हो या फिर हर खबर का आम लोगों पर पड़ने वाला असर उन्हें समझाना हो तो बॉसेज़ का ये उम्मीद करना बेमानी भी नहीं और लास्ट बट नॉट द लीस्ट- हिंदी एंकर बनना है तो भी हिंदी के साथ साथ अग्रेजी शब्दों का सही प्रोननसिएशन अगर नहीं सीखा है तो आपने खुद ब खुद एंकरिंग के लिए अपनी किस्मत के कपाट बंद कर लिए हैं यही समझा जाएगा...

कहने का मतलब ये कि इस फील्ड में आना है तो पूरी तैयारी के साथ आईए हो सके तो कम से कम 2-3 सालों के रिपोर्टिंग अनुभव के बाद आईए क्योंकि अब जमाना बदल चुका है। एक जमाने में सेलेब्रिटी समझे जाने वाले खबरनवीसों का वो दर्जा तो अब नहीं रहा लेकिन उनसे दर्शकों की उम्मीदें काफी बढ़ चुकी हैं और एक न्यूज रीडर ,अब न्यूज एंकर का रूप धारण कर चुका है जिसका काम सिर्फ खबरें पढ़ना नहीं एक खबर की तह तक जाकर खुद अपनी काबिलियत से घंटों तक लोगों को बांधे रखना है । और अगर आप में हैं ये तमाम खूबियां या अपनी काबिलियत को इन खूबियों में बदलने का जज्बा तो आपको फेस ऑफ द चैनल बनने से कोई रोक नहीं सकता.....आमीन

Wednesday 27 January 2010

ठेके पर जीवनसाथी !

हमारे यहां कहा जाता है कि 'रिश्ते' आसमान में बनते हैं , जब जब , जिस जिससे , जिसको मिलना है मिल जाएगा और जब वो आपको मिलेगा तो खुद ब खुद आपको इस बात का अहसास हो जाएगा कि हां, यही है मेरी मंजिल। माना कि कुछ को ये बातें ख्याली लग सकती हैं लेकिन कम से कम मेरा निजी अनुभव तो यही कहता है कि ये बातें बहुद हद तक सच हैं.....

बहरहाल कुछ दिनों पहले एंजिलिना जोली और ब्रैड पिट के रिश्तों में दरार की खबरें पढ़ीं तो हैरत तो हुई क्योंकि सामाजिक सरोकारों से जुड़े हर मुद्दे पर ये दोनों हमेशा एक साथ नजर आते थे , उन्हें देखकर हर कोई कहता - Made For Each Other , देखों दोनों कितना एक सा सोचते हैं......लेकिन नहीं इनके रिश्ते का हश्र भी वही हुआ जो हॉलीवुड के ज्यादातर जोड़ों का हुआ....फिर दिल ने कहा अरे जनाब छोड़िए ...ये तो हॉलीवुड का रिवाज है, एक जमाने में ब्रैडपिट और जेनिफर एनिस्टन के लिए भी तो यही कहा जाता था , पर एंजिलिना से मिलने के बाद ब्रैड ने जेनिफर को पीछे मुड़ के कहां देखा....अब एक बार फिर कहानी खुद को दोहरा रही है । ब्रैंजिलिना के नाम से मशहूर ये जोड़ी भी टूट की कगार पर है। दिल के साथ साथ बंटवारा किया जा रहा है 6 बच्चों की कस्टडी का , और उससे भी अहम ....बंटवारा किया जा रहा है हजारों करोड़ की अकूत संपत्ति का ।

बंटवारा, फिर हॉलीवुड के एक जोड़े के बीच बंटवारा...यकीन जानिए जब इस खबर की तह तक गया तो दिल टूट गया, मन के तार आपस में उलझ गए और लगने लगा कि सफलता की सीढियां चढ़ते चढ़ते क्या एक दिन हमारे लिए भी रिश्ते नातों के कोई मायने नहीं रह जाएंगे , फिर तो बात बात में वेस्टर्न कंट्रीज़ से इंसपिरेशन लेने की अपनी आदत से भी नफरत होने लगी
और ये सब तब हुआ जब पता चला कि हॉलीवुड के ज्यादातर मियां बीवी के रिश्ते तो ठेके पर चल रहे हैं ।

यहां की अब तक की सबसे नामचीन पॉप सिंगर मानी जाने वाली और जिंदगी के 50 सावन देख चुकी मडोना ने तो अपने पूर्व पति गाय रिची से शादी करने से पहले हुए करार में ये तक लिखवा लिया था कि दोनों एक दूसरे को कितना वक्त देंगे, कितनी बार शारीरिक संबंध बनाएंगे और अगर किसी की बात किसी को बुरी लग जाएगी तो चिल्लाने का हक किसी के पास नहीं होगा....आखिर किसी की सुनने का आजकल किसी में माद्दा कहां है ?

फिर तो निकोल किडमैन से अपने सारे रिश्ते नाते तोड़ चुके टॉम क्रूज भी याद आए जिन्होंनें अपनी मौजूदा पत्नी केटी होम्स के साथ अपनी शादी के 3 साल के करार को अभी अभी आगे बढ़ाया है लेकिन नए करार में केटी ने हर साल के खर्चे को करीब करीब दोगुना करते हुए 10 करोड़ रूपये सालाना की मांग की है। वैसे बताता चलूं कि ये वही केटी हैं जिन्होंनें टॉम के बच्चे की मां बनने के लिए उनसे 15 करोड़ वसूले थे.....इस बार के करार में केटी ने दुबारा मां बनने की कीमत 55 करोड़ रूपये तय की है...जाहिर है बढ़ती महंगाई का असर केटी पर भी पड़ा है। वहीं टॉम क्रूज को बाय बाय बोल चुकीं निकोल किडमैन अपने से आधी उम्र के कीथ अरबन को पति की तरह साथ रखने के एवज में 3 करोड़ रूपये सालाना भर रही हैं....गोया पति न हो गया कोई जिगोलो हो गया.....

ये वो लोग हैं जिन्हें आप किसी देश के दूर दराज इलाके में बसी , किसी जनजाति के लोगों की दकियानूसी परंपरा मान कर अनदेखा नहीं कर सकते ....क्योंकि ये वो लोग हैं जो दुनिया भर के लोगों को इनके जैसा बनने के लिए इंस्पायर करते हैं ,बेहद सफल और बेहद अमीर,पर इनके स्टारडम ,इनके रूतबे और इनके पैसों ने आज इन्हें कहां पहुंचा दिया है । भले ही आज ये करोड़ों दिलों की धड़कन हों लेकिन इनकी एक एक धड़कन का हिसाब किताब लगाकर इन्हें इनके अपने ही दौलत के तराजू में हर रोज तोल रहे हैं। ये वो दुनिया है जहां रिश्तों का कोई मोल नहीं रह गया, सबकुछ पैसे के इर्द गिर्द नाचता है यहां । आप खुद सोचिए उस बच्चे के दिल में अपनी मां के लिए कितनी इज्जत होगी जिसे पता हो कि उसकी मां ने उसे दुनिया में लाने के लिए भी उसके पिता से करोड़ों में सौदा तय किया था।

ये कहानियां सबक हैं हर उस भारतवासी के लिए जो पश्चिम को कॉपी करने की अंधाधुंध रेस का हिस्सा है, ये कहानियां हमें सिखाती हैं नाज़ करना उस भारतीय संस्कृति पर जिसकी हम और आप अक्सर आलोचना करते रहते हैं ....वाकई हमें गर्व है उस देश का हिस्सा होने पर जहां जीवनसाथी ठेके पर नहीं , सात जन्मों के बंधन के साथ मिलते हैं.....

Thursday 21 January 2010

क्रिकेट- रिश्ते जोड़ता ही नहीं , तोड़ता भी है

हम और आप बचपन से सुनते आए हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच कोई क्रिकेट मैच ,मैच नहीं होता...दो देशों के बीच जंग होती है....देखते आए हैं इस जंग को देखने के लिए लोगों की दीवानगी....गवाह बने हैं उन लम्हों के जब भारत पाक मैच देखने के लिए सड़कें सूनी हो जातीं थीं....लोग अपना काम धाम छोड़कर , छुट्टी लेकर घर बैठ जाते थे कि भई आज तो मैच है...आज कोई काम नहीं......लेकिन आज जब पाकिस्तान ने कहा कि भारत ने हमारे खिलाड़ियों का आईपीएल से पत्ता साफ करवाके हमारे साथ धोखा किया है....हम भी ईंट का जवाब पत्थर से देंगे.....पाकिस्तान में नहीं होने दिया जाएगा आईपीएल के मैचों का प्रसारण.....तो एक झटका सा लगा...मन के एक कोने में साल 2006 की वो तस्वीर अचानक उभर आई जब भारत पाकिस्तान के बीच लाहौर में खेले जाने वाले तीसरे वनडे मैच के बाद , तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ अपने, झारखंड के लाल, धोनी की बल्लेबाजी के साथ साथ उनके हेयर स्टाइल के भी कायल हो गए थे.....और कहा था कि "आप अगर मेरी मानें तो अपने बाल न कटवाइएगा क्योंकि इस हेयर स्टाइल में आप अच्छे दिखते हैं...,"न जाने क्यूं उन तस्वीरों को देखने के बाद ऐसा लगा था ....कि बस अब भारत पाकिस्तान के बीच सब कुछ ठीक हो जाएगा......लेकिन नहीं उस लम्हे में क्रिकेट के जरिए दोनों देशों के रिश्तों को एक बेहतर मकाम पर पहुंचाने का सपना मेरी तरह , जिस जिसने भी देखा... वो आज चकना चूर हो गया.....


दिल में ये ख्याल भी आया कि इस बार झगड़े की शुरूआत तो हमने ही की है.....जरा सोचिए पाकिस्तान के उन दिग्गज 11 खिलाड़ियों के लिए ये कितनी बेइज्जती की बात है कि पहले तो उन्हें बिडिंग प्रॉसेस में शामिल किया जाता है और फिर एक तगड़ा झटका देते हुए, किसी भी खिलाड़ी को इस लायक नहीं समझा जाता कि वो किसी टीम का हिस्सा बनें.....आखिर क्या गलती है इन खिलाड़ियों की....क्या कमी रह गई इनकी परफॉर्मेंस में ....क्या वजह है कि ऑस्ट्रेलिया के एक रिटायर्ड खिलाड़ी डेमियन मार्टिन तक को हाथों हाथ खरीद लिया जाता है और धुआंधार बल्लेबाज और लाखों दिलों की धड़कन माने जाने वाले शाहिद अफरीदी मुंह ताकते रह जाते हैं .....आखिर क्या कसूर हैं इनका सिवाय इसके कि ये आंतकवादी देश करार दिए जा चुके पाकिस्तान से ताल्लुक रखते हैं....आखिर पाकिस्तान की हुकूमत और वहां पैर जमाए बैठे आंतक के आकाओं की करनी का खामियाजा इन्हें क्यों भुगतना पड़े..... क्या गलत कहते हैं पाकिस्तान के पूर्व कप्तान रमीज़ राजा कि हालात का अंदाजा पहले से ही भांपकर , पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड को अपने खिलाड़ियों को आईपीएल की बिडिंग में शामिल ही नहीं होने देना चाहिए था....


सरकार कहती है कि IPL एक प्राइवेट बॉडी है और इससे सरकार के फैसले से कोई लेना देना नहीं है....लेकिन अपने आप में ये बात हजम करना हमारे आपके लिए थोड़ा नहीं, बहुत मुश्किल है कि बिना सरकारी दबाव के IPL के फ्रेंचाईज़ीस ने पाकिस्तानी क्रिकेटर्स को लेकर इतनी बेरूखी दिखाई......और उन्हें सिरे से खारिज कर दिया

बहराहाल आज अपने खिलाड़ियों की बेइज्जती के बाद जिस तरह का बयान पाकिस्तान की तरफ से आया है उसने भले ही वहां के खिलाड़ियों के हरे हरे जख्मों पर मरहम का काम किया हो...लेकिन उन्हें ये भी जान लेना चाहिए कि गलती भारत की नहीं ....कमी उनके खेल में भी कतई नहीं ....गलती है उस देश की हुकूमत की है...जहां के ये बाशिंदे हैं....वो हुकूमत जो अपने खिलाड़ियों की कब्र खोदकर , उनके साथ खड़े होने का दिखावटी नाटक कर रही है और आईपीएल मैचों पर पाबंदी लगाने की धमकी देकर अपने ही देश की आवाम का दिल तोड़ रही है

Tuesday 12 January 2010

दिल्ली की सर्दी और खाक होती जिंदगी

भई दिल्ली में तो हाड़ कंपाने वाली ठंड़ पड़ रही है, सुबह उठना दूभर....नहाना दूभर....घर से गाड़ी तक आना दूभर....सर्द हवाएं शरीर में सुई की तरह चुभती हैं....कितना भी पहन ओढ़ कर क्यों न निकलो...ठंड, शरीर से आर पार हो ही जाती है....पता नहीं कब तक ये कोहरा परेशानी का सबब बना रहेगा...हम और आप आजकल कुछ ऐसी ही बातें करते अपने दफ्तर की सीढियां चढ़ते हैं.....और फिर एसी ऑफिस की गर्मी में ठंड भुलाकर, चाय की चुस्कियां लेते हुए काम शुरू करते हैं....घर लौटते वक्त फिर ठंड का अहसास होता है तो कुदरत को कोसते हुए रास्ता तय होता है और बस......एक बार घर पहुंच गए तो आनंद ही आनंद......लेकिन कुछ रोज पहले कुछ ऐसा हुआ जिसके बाद अब ठंड ज्यादा नहीं लगती .... बार बार ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करने को जी चाहता है....उस रोज....दिल्ली में हल्की बारिश हुई थी....ठंड और बढ़ चुकी थी.....ऑफिस से घर जाते वक्त ड्राइवर साहब को गाड़ी तेज भगाने की हिदायत दी....लेकिन न चाहते हुए भी उन्हें एक रेड लाइट पर ब्रेक लगाना ही पड़ा.....ब्रेक लगा तो चंद लम्हों बाद ही नजर आया....एक परिवार.....बेहद मैले कुचैले फटे हुए छोटे से कपड़ों में दो बच्चे, और अपनी आगोश में लेकर ....उन्हें किसी तरह ठंड से बचाने की नाकाम कोशिश करती उनकी मां....रेड लाइट मीटर 25, 24, 23 करता हुआ ग्रीन होने की जि़द कर रहा था और एक एक सेंकेंड किसी पर कितने भारी पड़ सकते हैं , हर पल मुझे इस बात का अहसास हो रहा था.....यकीन जानिए उन 20-25 सेंकेंड्स ने मुझे अंदर तक हिला दिया....रोम रोम में सिहरन सी दौड़ गई....

इसके आगे कुछ सोच पाता, कि ड्राइवर ने .... फर्स्ट गेयर लगाया...मैने देखा रेड लाइट ग्रीन हो चुकी थी.....फिर नजर फुटपाथ की तरफ गई..... ठंड से बचने की कोशिश करती वो जिंदगियां नजरों से ओझल हो चुकी थीं.....उनके लिए कुछ नहीं कर पाया.....क्योंकि उन चंद पलों में दिल के अंदर मचे तूफान की वजह से कुछ सोच ही नहीं पाया.....लेकिन ये ग़म चंद गरीबों का नहीं है.....आप जानकर हैरान हो जाएंगे कि देश के दिल दिल्ली में ...एक दो नहीं.... पूरे दस लाख लोग फुटपाथ पर रहकर इन सर्द हवाओं के थपेड़े झेलने को मजबूर हैं....हो सकता है इनमें से कुछ अगली ठंड झेलने के लिए बचें भी ना...पर ये बात तय है कि उनकी जगह जल्द ही भर जाएगी....जानना चाहेंगे क्यों....क्योंकि दिल्ली जैसे अत्याधुनिक शहर में कामयाबी की निशानी के तौर पर मेट्रो की रफ्तार नजर आती है...एक से बढ़कर एक शानदार ओवरब्रिज तो नजर आते हैं....कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर अरबों रूपये बहते भी नजर आते हैं....लेकिन ऐसे गरीब और बेसहारा लोगों के लिए नाइट शेल्टर्स यानि रैन बसेरे नजर नहीं आते.....तभी तो लाखों बीमार सड़कों पर रहते हैं और जिस एक को अनार बन चुके इन रैन बसेरों में जगह मिल जाती है वो अपने आप को खुशकिस्मत समझता है.....दरअसल पूरी दिल्ली में सिर्फ 10 रैन बसेरे हैं.... जिसमें से कोई भी महिलाओं के लिए नहीं है....जी हां दिल्ली ....जहां एक महिला मुख्यमंत्री पिछले 11 सालों से सत्ता पर काबिज हैं , वो दिल्ली जो देश के बाकी राज्यों के लिए विकास के मामले में एक नजीर की तरह पेश होती है......वहां महिलाओं के लिए एक भी नाइट शेल्टर नहीं है......

शायद शीला मैडम को अपनी एसी अंबैस्डर से दिल्ली की चमचमाती सड़कों पर रात बिताते ये लोग नजर नहीं आते....या मैडम उन्हें देख कर मुंह फेर लेती हैं.....या फिर मन ही मन ये सोच कर आगे बढ़ जाती हैं ...कि बस एक यही हैं...जिन्होंनें दिल्ली को दागदार कर रखा है ...आखिर क्या सोंचेगें कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान दिल्ली आए हमारे विदेशी मेहमान......काश, शीला दीक्षित ने सोचा होता कि अगर सिर पर एक अदद छत न हो.....तन ढकने को कपड़े न हों....तो दिन भर में कितनी बार इन महिलाओं का सामना इंसान के भेस में घूम रहे भेडियों से होता होगा....शायद सोचा होता कि हर साल ठंड आते ही सैकडों लोग हमेशा हमेशा के लिए काल के गाल में क्यों समा जाते हैं.....शायद सोचा होता दिल्ली की उन हजारों बेघर महिलाओं के ग़म के बारे में..... जिनके सिर पर छत तो दूर की बात है.....जिन्हें जिंदगी गुजारने के लिए पीने का साफ पानी और बुनियादी जरूरतें तक मयस्सर नहीं हैं। लेकिन नहीं......दिल्ली सरकार ने उनके बारे में सोचकर अपना कीमती वक्त जाया नहीं किया...तभी तो जब कुछ दिनों पहले एक रिपोर्टर ने मैडम से इन रैन बसेरों के बारे में जानने की कोशिश की तो सीएम साहिबा ने एक गलत जानकारी देते हुए...इस मसले पर बात करने से ही इंकार कर दिया....मैडम बोलीं कि नहीं ऐसी बेसहारा महिलाओं के लिए निर्मल छाया स्कीम चल तो रही है। जबकि निर्मल छाया अपराधी महिलाओं के लिए जेल है न कि बेघर महिलाओं का कोई सहारा.....

मैडम दीक्षित....बहुत तारीफें सुनी हैं आपकी.....खुद लोगों से की भी हैं.....मानता हूं कि इन 11 सालों में आपने दिल्ली को बहुत कुछ दिया है.....मानता हूं कि ये काम अकेले आपका नहीं है एमसीडी की सत्ता पर पांव जमाए बैठे बीजेपी के नेताओं की भी जिम्मेदारी बनती है.....पर अब तो एमसीडी में भी चलती आपकी ही है...किसी की क्या मजाल जो आपका कहा न माने....इसीलए अफसोस होता है....आज आपके इस विकास पर शर्म आती है...क्या यही है विकास....जो गरीबी, नहीं गरीबों को हटाए...उम्मीद करता हूं कि अगली बार आप सड़क पर निकलेंगी तो ये गरीब भी आपको नजर आएंगे...और इनकी मजबूरी भी...और फिर जब कोई रिपोर्टर आपसे इन गरीबों की हालत के बारे में सवाल पूछेगा तो आपको बगलें झांकने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी...

Thursday 7 January 2010

26/11 से 6/1 तक, कुछ नहीं बदला

26 11 --- शायद इस तारीख को बताने के बाद इस दिन के बारे में कहने को कुछ रह नही जाता, उस काली रात को भी मैं IBN7 के स्टूडियो में था.....अचानक खबर आई....कि मुंबई में फायरिंग हुई है...मुझे और मुंबई में मौजूद मेरे सहयोगी को कुछ पलों के लिए लगा कि ये गैंगवॉर है ..लेकिन कुछ ही मिनट में सब कुछ साफ हो गया। आज भी सोच कर रौंगटे खड़े हो जाते हैं....उस वक्त हुआ था देश पर सबसे बड़ा आतंकवादी हमला....जो पाकिस्तान की शह पर वहां बैठे आतंक के आकाओं ने कराया था....और फिर आया नया साल, 2010... तारीख 26/11 से बदलकर 6/1 हो चुकी थी...दोपहर का वक्त था मैं अपने एक सहयोगी से एंकरिंग के 2 घंटे के ब्रेक के दौरान बात ही कर रहा था कि यार कश्मीर जाने का बहुत मन कर रहा है क्या शानदार बर्फबारी हो रही है ...देख देख कर दिल में टीस सी उठ रही है....स्टूडियो में बैठ कर श्रीनगर में मौजूद अपने रिपोर्टर खालिद से कैमरामैन के जरिए खूबसूरत तस्वीरों को दिखाने की गुजारिश ही करता रहूंगा या कहीं जाउंगा भी.....तभी कहा गया ब्रेकिंग न्यूज है....मैने कहा क्या हो गया.....स्टूडियो की सीढियां चढ़ते हुए बस इतना सुन पाया कि श्रीनगर में कुछ हुआ है......पीसीआर में दाखिल होते होते खबर बहुत हद तक साफ हो चुकी थी....ये भी एक आतंकी हमला ही था...

कुछ देर पहले तक बर्फबारी की खूबसूरत तस्वीरें दिखाने वाले खालिद अब गोलियों की तड़तड़ाहट के बीच लाल चौक पर खडे थे....कभी झुकते हुए कभी सुरक्षाबलों की डांट सुनते हुए.....हटिए ...दूर हटिए.....यहां खतरा है....मैं लगातार सवाल पर सवाल दाग रहा था और खालिद अपनी भर्राई आवाज में जवाब दे रहे थे....अपनी जान पर खेलकर.....लेकिन इन सवालों के साथ मन के किसी कोने में कुछ और सवाल भी उठ रहे थे...... क्या यार कब तक हम इसी तरह इन आतंकी हमलों की खबर पढ़ते रहेंगे....क्या करती रहती हैं हमारी खुफिया और सुरक्षा एजेंसियां......अभी कुछ देर पहले तक कितना खुशगवार नजर आ रहा था हमारा कश्मीर....अब देखो कैसा सन्नाटा पसर गया है सड़कों पर....कैसे कुछ देर पहले बर्फ में अटखेलियां करने वाले टूरिस्ट जान बचाने के लिए इधर उधर भाग रहे हैं....एक पल को ये भी ख्याल आया कि अच्छा हुआ कश्मीर गया नहीं , स्टूडियो में लगे प्लाज्मा से ही कश्मीर की खूबसूरती निहारना फायदेमंद रहा....पर फौरन मन ने पलटी मारी.....कहा इन आतंकियों की तो ऐसी की तैसी....कुछ देर बाद मेरे साथ लाइव मौजूद सीआरपीएफ के डीआईजी ने भी यही कहा...इन आतंकियों की तो ऐसी की तैसी....हां एक बात और....जिसने अभी अभी पैदा हुआ कश्मीर जाने का डर मार दिया......खालिद ने उनसे पूछा डीआईजी साहब कितना वक्त है आपके पास....डीआईजी साहब बोले वक्त तो हमारे पास बहुत है ...पूछिए...उनके पास कितना वक्त है....लगता है खुदा ने उनकी जिंदगी के चंद लम्हे बाकी रखे हैं सो वो , वही काट रहे हैं....बस वो लम्हे उन्हें काट लेने दीजिए....फिर उनका खेल खत्म......

इन दो लाइनों ने दो काम किए....एक तो डर दिल से निकल गया , दूसरे इस सवाल का जवाब मिल गया कि क्या करती हैं हमारी सुरक्षा एजेंसियां....करीब 20 घंटे के बाद आंतकियों की पनाहगाह बन चुके न्यू पंजाब होटेल से आग की लपटें धधकती नजर आईं....दिल में एक टीस सी हुई...और जेहन में जलते हुए ताज की तस्वीर घूम गई....पर खुदा का शुक्र था कि 2 घंटे में ही वो खबर आ गई जिसका मेरे साथ साथ देश के तमाम लोगों को इंतजार था.....होटल में लगी आग दहशतगर्दों की जिंदगी बचाने की आखिरी नाकाम कोशिश थी.....चंद पलों में ही खुशखबरी आ चुकी थी.....वैसे तो किसी की मौत की खबर खुशखबरी कहना अजीब लगता है पर दहशतगर्द इसी लायक हैं.....हमने शान से सुरक्षाबलों के हौसले को सलाम करते हुए दुनिया को बताया कि लो एक बार फिर हमने देश में सिर उठा रही आतंकी फितरत को कुचल डाला.....चंद ही लम्हे गुजरे थे...ये भी पता चल गया कि मुंबई पर हुए हमले की तरह ही ये आतंकी भी सरहद पार पाकिस्तान में बैठे आंतक के आकाओं की कठपुतली ही थे...

जी हां 26/11 से 6/1 तक हमारे देश और पूरी अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी के दबाव के बाद भी पाकिस्तान नहीं बदला....बार बार मुंह की खाने के बाद भी पाकिस्तान नहीं बदला.....देखिए कब तक हमें भुगतनी पड़ती है एक आतंकवादी देश के पड़ोसी होने की सजा