Tuesday 27 September 2011

भटक गया 'मौसम'

काफी दिनों बाद वीकएंड पर कोई फिल्म देखने का वक्त निकाल पाया। च्वाइस मौसम थी क्योंकि पंकज कपूर को बतौर एक्टर मैं काफी पसंद करता हूं सो सोचा कि, बतौर डायरेक्टर जनाब की पहली फिल्म तो देखनी बनती है । वैसे भी सिनेमा हॉल्स में इसके अलावा कोई दूसरी च्वाइस भी नहीं थी।

फिल्म शुरू होती है पंजाब के एक छोटे से खूबसूरत गांव में एक मुस्लिम लड़की और हिंदू लड़के के बीच पनप रहे प्यार से । ये प्यार, प्यार जितना ही प्यारा है , खूबसूरत है, निस्वार्थ है, बड़ी तसल्ली हुई पर्दे पर ये देखकर कि आज भी कुछ फिल्मकार ऐसे हैं जिनके जेहन में लव , लव ही है लस्ट नहीं बना है । वर्ना आजकल की कुछेक फिल्मों ने तो लव के मायने ही बदल दिए हैं । बहरहाल ये कहना गलत नहीं होगा कि पिता के डायरेक्शन में शाहिद कपूर ने अपने कैरेक्टर के साथ बखूबी न्याय किया है। गांव के गबरू जवान बने शाहिद हर सीन में अपनी काबिलियत साबित करते हैं। हालांकि सोनम की एक्टिंग में सुधार की जरूरत जरूर है । फिर भी एक मुस्लिम लड़की के रोल में वो अच्छी लगी हैं।

लेकिन इंटरवल से पहले पहले ये खूबसूरत मौसम भटकने लगता है। ऐसा लगा जैसे पंकज कपूर ये मान कर बैठ गए कि इसके बाद दोबारा उन्हें फिल्म बनाने का मौका ही नहीं मिलेगा। ऑपरेशन ब्लू स्टार से लेकर गुजरात तक एक खूबसूरत स्वीट लव स्टोरी को उन्होंने दंगों की आग में ऐसा झोंका कि उसने दम तोड़ दिया औऱ मौसम संभल ही नहीं पाया। डायरेक्टर ने हर दंगे , और उससे जुड़े हर मुद्दे पर अपनी राय देने की कोशिश की । 1992 से अगर कहानी को टर्न लेना ही था तो जरूरी नहीं है कि बाबरी विध्वंस दिखाया ही जाए, औऱ अगर 2002 में दो बिछड़े प्रेमियों को मिलना ही था तो जरूरी नहीं कि गुजरात दंगे दिखाए ही जाएं वो भी तब जब दंगों की वजह से कैरेक्टर्स की जिंदगी पर कोई असर न पड़ रहा हो।

सो अफसोस ये 'मौसम' बीच रास्ते में ही भटक गया और पंकज कपूर जैसा काबिल कलाकार एक बेहतरीन फिल्म बनाने से चूक गया ।