आखिर ये क्या हो गया है बीजेपी को, लगातार दो लोकसभा चुनावों में मात खाने के बाद बदले बदले से क्यों नजर आ रहे हैं पार्टी के तेवर । संघ के पसंदीदा नए नवेले अध्यक्ष नितिन गडकरी तो मुसलमानों को साथ लाने की अपील कर रहे हैं वो कह रहे हैं कि मुसलमान भाई आगे आएँ और सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल कायम करते हुए विवादित स्थल पर एक भव्य राम मंदिर बननें दें । राम मंदिर आंदोलन के हीरो कहलाने वाले आडवाणी के सामने ही मंच पर दिल बड़ा करते हुए वो ये भी कहते हैं कि अगर बगल की कोई जगह मिल गई तो बीजेपी एक भव्य मस्जिद का भी निर्माण करवाने में पूरा सहयोग करेगी। आप ही बताइए दिसंबर 1992 के बाबरी विध्वंस के बाद क्या बीजेपी के पास इस अपील का नैतिक अधिकार है । पर जो भी हो जमीन आसमान का फर्क नजर आ रहा है बीजेपी के चाल , चरित्र और चेहरे में ,बात भले ही घुमा फिरा कर वही की गई हो पर इस बार पार्टी नेताओं के बयान में 'मंदिर वहीं बनाएंगे ' का उग्र हिंदुवाद नदारद है। वो उग्र हिंदुवाद जो आज भी देश के एक समुदाय को डराता है। वो उग्र हिंदुवाद जो अक्सर खुद को देश के कानून से ऊपर समझ बैठता है और जोश में होश खोकर 6 दिसंबर 1992 को देश के गौरवमई लोकतंत्र में एक काला अध्याय जोड़ देता है। हिंदुवादी पार्टी से धर्मनिरपेक्ष पार्टी बनने की दिशा में ये बीजेपी का पहला कदम है। उसे इस बात का देर से ही सही अहसास हो गया है कि देश के 14 करोड़ मुसलमान भी इस देश का अहम हिस्सा हैं और बिना उनको साथ लिए पार्टी का कल्याण मुमकिन नहीं है।
लेकिन अपसोस होता है ये जानकर कि सादगी का नाटक कर पांचसितारा तंबुओं में इतने दिनों की माथापच्ची करने के बाद भी पार्टी मंदिर-मस्जिद से ऊपर नहीं उठ पाई । इतने दिनों के चिंतन के बाद भी बीजेपी के नेता सिर्फ इस नतीजे पर पहुंच पाए कि जनता को एक मंदिर के साथ साथ मस्जिद का भी एक लॉलीपॉप पकड़ा देना चाहिए । आप ही बताइए क्या बढ़ती मंहगाई और मंदी का मार झेल रही देश की जनता को इस बात से कोई वास्ता है , जिस देश की आधी आबादी युवा हो वो देश के विकास, बेहतर शिक्षा व्यवस्था और बेरोजगारी से निजात दिलाने की फ्यूचर प्लानिंग को तवज्जो देगी या एक ऐसी पार्टी पर भरोसा करेगी जो आज भी 1989 की अपनी 21 साल पुरानी सोच से उबर पाने में नाकाम है । क्या वो कभी एक ऐसी पार्टी का साथ देगी जो खुद को बदलना भी नहीं चाहती और बदला हुआ नजर भी आना चाहती है ।
जरा सोचिए इससे पहले क्या हमारे देश का विपक्ष कभी इतना कमजोर रहा कि सरकार की गलत नीतियों का माकूल जवाब भी न दे पाए। ऐसे वक्त में जब देश में पिछले 6 सालों से कांग्रेस लेड यूपीए की सरकार हो और महंगाई ने देश के हर आमो खास की कमर तोड़ रखी हो बीजेपी इस मुद्दे को क्या इमानदारी से उठा पाई । देश की जनता को क्या ये बता पाई कि एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री बढ़ती इनफ्लेशन रेट को रोक पाने में इतने लाचार क्यों नजर आते हैं । नहीं....बिल्कुल नहीं ,क्योंकि काफी दिनों से सत्ता सुख का आनंद न भोगने वाली बीजेपी शायद अब जनता की नब्ज पकड़ना भी भूल गई है । और यही वजह है कि इन तमाम ज्वलंत मुद्दों को छोड़ , आरएसएस के कट्टर हिंदुवादी चेहरे से कभी खुद को करीब और कभी दूर साबित करने के अंतर्द्वद में फंसे पार्टी के नेता अब धर्मनिरपेक्ष होने का दिखावा कर रहे हैं... थोड़ा डरते हुए क्योंकि आडवाणी का जिन्ना प्रकरण और धर्मनिरपेक्षता का चोला ओढने की जो कीमत उन्होंने चुकाई वो कोई भी अपने जेहन से निकाल नहीं पाया है।
उम्मीद तो थी कि एसी टेंट में ही सही लेकिन प्रकृति के थोड़े करीब आकर , नए युवा अध्यक्ष की अगुवाई में ये नेता कुछ नया सोचकर एक नई शुरूआत करेंगे पर बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि पार्टी की नेशनल एक्जेकेटिव में सुबह शाम चले मंथन के बाद भी ये नेता अपनी पार्टी के लिए अमृत नहीं निकाल पाए ।
4 comments:
vaqai bjp ke roop me desh ko abtak ka sabse kamzor vipaksh mila hai
BJp तो बदल गई पर क्या आप भी कभी बदलेंगे कि एसे ही रहेंगे अलगावबादी
@@@@@ hindu tigers.....janab aaapne algaw waadi shabd kaha par detail nahi likha ki kisko algaw waadi kaha??
बीजेपी एक ऐसी पार्टी है जो खुद को हिन्दूओ का प्रतिनिधि मानती है.वो चाहकर भी ऐसा कुछ नहीं कर सकती जिससे उसके हिन्दू समर्थक(वोट बैंक) खुद को अपमानित महसुस करे. मंदिर मुद्धा बीजेपी का वो हथियार है जिससे वो अपनी जमीन बचा सकते है और अपने सक्रिय होने का बोध भी करा सकते है. पर अब उन्हे ये लगने लगा है कि भारतवासी खुद को बदल रहे है और उन्हें धर्मवाद छोड़कर राष्ट्रवाद का नारा लगाना चाहिए, सो सत्ता को फिर से पाने के लिए वो दोनो धर्मों को मंदिर और मस्जिद का प्रलोभन देने की कोशिश कर रहे है.पर शायद बीजेपी ये भूल गई है कि ये पब्लिक है ये सब जानती है. अरुण सिन्हां
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