Sunday 13 June 2010

राजनीति के गड़े मुर्दे

राजनीति में मुर्दे कभी दफन नहीं किए जाते उन्हें जिंदा रखा जाता है ताकि वक्त आने पर वो बोलें....प्रकाश झा की राजनीति में मनोज वाजपेयी का ये डायलॉग आज नरेंद्र मोदी के पटना के ताजा भाषण के बाद अचानक याद आ गया......। पटना में बीजेपी की स्वाभिमान रैली में पूरे कॉन्फिडेंस से कांग्रेस की बखिया उधेड़ते नरेन्द्र मोदी और साल 2007 के गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान मोदी को उनकी ही मांद में घुसकर उन्हें उनकी औकात बतातीं सोनिया गांधी.....राजनीति के गड़े मुर्दे होते क्या हैं ये जानने के लिए इन दोनों बातों का जिक्र एक साथ करना लाज़मी है....क्योंकि आज अरसे बाद मोदी ने एक बार फिर कुछ गड़े मुर्दों को बुलवाया है....सोनिया गांधी को खरी खरी सुनाई है.....मोदी ने कहा कि भोपाल गैस कांड में हजारों लोगों की जानें गईं...और भोपाल के गुनहगार वॉरेन एंडरसन को बचाने में उस वक्त की कांग्रेस शासित केंद्र और राज्य सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी ....अब सोनिया गांधी इस मसले पर चुप क्यों हैं....वो अपना मौन तोड़ें और देश को बताएं कि असली 'मौत का सौदागर' कौन है.....

मोदी एक सधे हुए राजनेता हैं...वो एक एक शब्द तोलकर बोलते हैं....'मौत का सौदागर' - गुजरात दंगों की कालिख ढो रहे मोदी के लिए ये जुमला बेहद खास है....क्योंकि पहली बार इसका इस्तेमाल 2007 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उनके खिलाफ अपनी एक चुनाव रैली में किया था ....सोनिया ने मोदी की इस दुखती रग पर ये सोचकर हाथ रखा था कि मोदी को मौत का सौदागर बताने पर अल्पसंख्यकों के जख्म हरे होंगे....एक सूबे की जनता को अपने मुखिया के चेहरे के पीछे छुपा चेहरा नजर आएगा...और वोट लहर उनके पक्ष में जाएगी.....लेकिन हुआ ठीक इसका उलट.....वोटरों के ध्रुवीकरण में माहिर मोदी की राजनीति जीती और कांग्रेस को मिली हार....और एक बार फिर गुजरात दंगों के आरोपी मोदी भारी बहुमत से जीतकर गुजरात की सत्ता पर काबिज होने में सफल हुए....वो दिन और आज का दिन...मौत के सौदागर नाम का ये जुमला...मोदी का चहेता जुमला बन गया...क्योंकि ये उन्हें याद दिलाता है उनकी जीत और सोनिया की हार की। वैसे दाद देनी होगी मोदी के कॉन्फिडेंस की इस जुमले का दुबारा जिक्र करने से वो जरा भी नहीं चूके....ये जानते हुए कि इस जुमले की आंच में देश के लिए सबसे बड़ा शर्म बन चुके गुजरात दंगों के जख्म फिर से हरे हो सकते हैं...मोदी ने दरअसल इस बात की कभी फिक्र की ही नहीं ...क्योंकि राजनैतिक तौर पर दंगों के दंश ने उन्हें फायदा ही फायदा दिया है....दंगे हमेशा उनके लिए मुनाफे का सौदा ही साबित हुए हैं। वो पहले से ज्यादा मजबूत हुए...बीजेपी में उनका कद बढ़ा....संघ में उनकी पूछ बढ़ी....वो बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार तक कहे जाने लगे...और दंगों का दाग लादे सरकार कायम रखकर खुद को उन्होंनें एक मझा हुआ राजनेता साबित किया।

वैसे मोदी के इस बयान को सुनकर चोर चोर मौसेरे भाई वाली कहावत भी याद आ गई.....क्योंकि मोदी कांग्रेस से यही तो कहना चाहते थे कि 2002 में गुजरात में मैने जो किया वो किया, हमारा दामन अगर दागदार है तो आप कौन से दूध के धुले हैं...आखिर भोपाल गैस कांड में 25000 मौतों के जिम्मेदार शख्स यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वॉरेन एंडरसन को कांग्रेस की तत्कालीन राज्य और केंद्र सरकार ने भगाने में इतनी दिलचस्पी क्यों दिखाई । मोदी ने इस बार सोनिया की ही तरह कांग्रेस की दुखती रग पर हाथ रखा है, ये मु्द्दा वैसे भी इस वक्त कांग्रेस के गले की सबसे बड़ी हड्डी है...सोनिया गांधी चुप हैं और प्रणब मुखर्जी जैसे दिग्गजों तक को ये समझ में नहीं आ रहा कि पार्टी की खाल कैसे बचाई जाए.....जाहिर है ये दौर 1984 का तो है नहीं कि सरकारें कुछ भी करके निकल जाएं...हमारे देश का मीडिया आज बेहद मजबूत है और सरकारी निकम्मेपन की पोल खोलने को आतुर भी....जनता भी अब पहले से ज्यादा जागरूक है और सरकारें जवाबदेह....लिहाजा कांग्रेस को बैकफुट पर जाने के अलावा कोई चारा नजर नहीं आता।

अब राजनीति में गड़े मुर्दे कितना काम आते हैं ये तो आप समझ गए होंगे..लेकिन मुमकिन है मेरी तरह ये न समझ पाएं हों कि आखिर मोदी के गड़े मुर्दे जब जिंदा होते हैं उन्हें फायदा क्यों पहुंचा जाते हैं और कांग्रेस के गड़े मुर्दे जब कब्र से बाहर आते हैं तो पार्टी को नुकसान क्यों दे जाते हैं....समझ में आ जाए तो बताइएगा जरूर.....

Sunday 6 June 2010

प्रकाश झा की मजबूर'नीति'

राजनीति किस हद तक गंदी हो सकती है, राजनीति कैसे रंग बदल सकती है...और राजनीति कैसे एक भरे पूरे परिवार को नफरत और बदले की आग में अंगार बना सकती है....ये सब कुछ देखने को मिला प्रकाश झा की राजनीति में। हमारे देश की स्टेट पॉलिटिक्स का खाका खींचने की कोशिश में झा बहुत हद तक कामयाब रहे हैं....गंगाजल और अपहरण जैसी फिल्मों के जरिए जबरदस्त फैन फालोइंग बटोरने वाले प्रकाश झा ने इस फिल्म के बाद अपना लोहा मनवाने वालों की फेहरिस्त में और इजाफा कर दिया है। इस वीकएंड फिल्म देखकर निकला तो मन में यही ख्याल आया कि महाभारत के किरदारों की माला में आज के राजनेताओं को पिरोने का ये काम बखूबी अंजाम दिया है डायरेक्टर ने...बड़ा कैनवास, बड़ा बजट और सितारों की लंबी चौड़ी फौज....और नाना से लेकर रणबीर तक सबकी शानदार अदाकारी....मानो एक एक एक्टर इसी रोल के लिए बना हो....सिवाय एक के...

समझ नहीं पाया कि आखिर क्या मजबूरी रही होगी प्रकाश झा जैसे दिग्गज डायरेक्टर के सामने कि वो फिल्म में एक भी लाईन हिंदी में ढंग से न बोल पाने वाली कटरीना कैफ को लेने पर मजबर हुए.....वो कटरीना जो इस मजबूत फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी साबित हुईं....जिन्होंनें अपनी अल्हड़ अदाकारी से ये जता दिया कि इतनी फिल्में करने और बॉलीवुड की नंबर वन हिरोइन का तमगा हासिल करने के बाद भी उन्हें अदाकारी की कितनी समझ है...कटरीना ने इस फिल्म के जरिए उन्हें फिल्में हिट कराने का सबसे कामयाब फार्मूला मानने वाले फिल्मकारों को ये भी बता दिया है कि सीरियस रोल्स में उन्हें लेने की भूल न ही करें तो अच्छा...दो चार गाने , दो चार डांस और फिल्मों में ग्लैमर का तड़का लगाने के लिए ही उनका इस्तेमाल किया जाए तो अच्छा ..... जैसा वो अबतक करती आईं हैं....क्योंकि राजनीति में कटरीना जब जब नजर आईं उन्होंनें अपने नाकाबिलियत से दर्शकों को इस बात का ही अहसास कराया कि आप ये सोंचने की भूल न करें कि ये रिएलिटी है...हम लोग ड्रामा कर रहे हैं...तीन घंटे का ड्रामा देखिए और खुशी खुशी घर जाइए....

हिंदी में कटरीना के डायलॉग्स की डबिंग खुद उनसे कराने में प्रकाश झा इतना फख्र क्यों महसूस कर रहे थे , फिल्म देखने के बाद कम से कम मैं तो समझ नहीं पाया...क्योंकि मेरे हिसाब से ये उनके कद के डायरेक्टर की सबसे बड़ी भूल थी , अफसोस प्रकाश झा के चुनाव पर नहीं वक्त पर भी होता है..प्रकाश झा भी क्या करें...बॉलीवुड का ये वो दौर है जिसमें उम्दा अभिनेत्रियों का अकाल पड़ा हुआ है, विदेशों से अभिनेत्रियां इम्पोर्ट की जा रही हैं और यहां लाकर उन्हें स्टार बनाया जा रहा है...तभी तो राकेश रोशन जैसे दिग्गज मैक्सिकन ब्यूटी बारबरा मोरी और इम्तियाज अली गिजे़ल मोंटारियो की अदाकारी पर यहां की अदाकाराओं से ज्यादा भरोसा करते हैं..मिस श्रीलंका जैक्कलीन फर्नाडिंस एक साथ कई फिल्मों में नजर आती हैं..... आप इसे बॉलीवुड का ग्लोबलाइजेशन भी कह सकते हैं पर एक नजर अपने बॉलीवुड पर डालेंगे तो तस्वीर बहुत हद तक साफ हो जाएगी....जरा एक नजर दौड़ाइये और सोचिए आज के दौर में कौन है ऐसी अभिनेत्री जिसमें माधुरी दीक्षित की संजीदगी भी नजर आए और श्रीदेवी का चुलबुलापन भी । जो हर तरह के किरदार में ढलने का माद्दा रखती हो, जो वाकई में अपने दम पर फिल्में चलवाने का दमखम रखती हो....कटरीना से लेकर करीना तक.....और दीपिका से लेकर सोनम कपूर नए दौर की नायिकाओं में सबका ध्यान अभिनय की बारीकियां सीखने में कम, अपने बोल्ड लुक से दर्शकों को चौंकाने और साइज जीरो पर ज्यादा है......देखिए कब खत्म होता है नाकाबिल अभिनेत्रियों की मौज का ये दौर.... कब मिलती है हिंदी सिनेमा को दूसरी माधुरी ...और कब तक चलती है प्रकाश झा जैसे फिल्मकारों की मजबूर नीति।