Friday 26 February 2010

हुसैन, तुम माफी मत मांगना

GUEST BLOG BY- PRABHAT SHUNGLU

मकबूल फ़िदा हुसैन को कतर की नागरिकता दिये जाने पर एक बार फिर से उन्हे खोने का ऐहसास हो रहा। लेकिन राजनीति की बिसात पर हुसैन बस मोहरा बन कर रह जाते हैं। आज सेक्यूलरिज़म की दुहाई देने वाले चुप हैं। ये वही लोग हैं जिन्होने सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को सरकारी दस्तावेजों के विशाल डम्पिंग ग्राउंड में दफ्न कर दिया है। ये हिम्मत कौन दिखाएगा कि उस रिपोर्ट को बाहर निकाल कर, उसे झाड़ पोंछ कर उसपर सिरे से अमल किया जाए। हुसैन से अलग जस्टिस सच्चर ने जो देश की अक़लियत के विकास का एक्स-रे निकाला उसमें देश की सेक्यूलर छवि तार-तार दिखी।
सेक्यूलरवाद की दुहाई देने वाला ये समाज अक्सर कट्टरवादी हो-हल्ला करने वालों के सामने घुटने टेकता देखा गया। सरकारी तंत्र भी नपुंसक बन जाता है। यदि ऐसा न होता तो हुसैन को दुबई जाकर न बसना पड़ता। महाराष्ट्र के पंढरपुर की धरती पर वो दोबारा लौटते जहां उन्होने जन्म लिया था। लेकिन महाराष्ट्र की धरती को तो मातोश्री विचारधारा वाले बिगड़ैल शिवसैनिक सींच रहे हैं। बाकी जगहों पर हुसैन के खिलाफ बजरंगियों ने मोर्चा खोला हुआ था। हम उन जैसे कुंठित विचारधारा के लोगों को भी सह रहे हैं। हमने उनके सामने भी घुटने टेके, हम तो उनसे भी डर गए जो ये बता रहे थे कि किताब धर्म और मज़हब का मज़ाक उड़ा रही। इसलिये हमने वो किताब बिना पढ़े ही बैन कर दी। फिर तस्लीमा नसरीन के वीज़ा की मियाद इसलिये नहीं बढ़ाई कि वो और ज्यादा रहीं तो एक वोट देने वाला एक तबका नाखुश हो जाएगा। पश्चिम बंगाल की सीपीएम सरकार ने तो उन्हे राज्य से ही तड़ीपार का हुक्म दे दिया। हमने प्रूव कर दिया कि हम पूरी तरह से सेक्यूलर हैं - हुसैन को दुबई भेजकर, तस्लीमा को तड़ीपार कर और सलमान रूश्दी की किताब पर प्रतिबंध लगाकर। लेकिन यही हमारे सेक्यूलरिज्म का दोमुंहापन है, यही हमारी तमाम सरकारों का दोमुंहापन है और यही दोमुंहापन हमारे समाज में भी व्याप्त है।
चीन में सरकारी आतताइयों के खिलाफ वहां का युवा वर्ग जब खड़ा हुआ तो तिआनन मेन चौराहे की तस्वीरों नें दुनिया को हौसला दिया कि आवाज़ दबाए नहीं दबाई जा सकती। लेकिन हमारी भारतीय परंपरा में न जाने कब ये वाइरस घर कर गया कि जो हो रहा उसे होने दो। बदलने की कोशिश मत करो। यही कारण था कि इमरजेंसी के दौरान कुछ आवाज़े तो दबा दी गईं और कुछ खुद ही शांत पड़ गईं। जो शांत पड़ गये वो इंदिरा के उस रौद्र रूप के कायल हो गए और उनकी शान में कसीदे भी गढ़े। वो भी उसी तरह की एक्सट्रीम विचारधारा थी जो मकबूल फिदा हुसैन को वतन छोड़ने के लिये मजबूर कर देती है। हम अतिवाद को लेकर सहनशील होते जा रहे जबकि तरक्की की राह पर चलने से पहले अतिवाद का त्याग पहली शर्त होनी चाहिये थी।
जब 2004 में यूपीए गठबंधन बना तो इस गठबंधन में देश की तमाम छोटी बड़ी पार्टियां जुड़ी। कश्मीर से चेन्नई तक। असम से आंध्र तक। तमाम पार्टियों ने मिलकर हुकूमत करने का प्लान बनाया। लेकिन जो गठबंधन सेक्यूलरिज्म और विकास के मुद्दे पर सत्ता पर काबिज हुआ उसने भी हुसैन को भारत वापस लाने के लिए कुछ नहीं किया। बल्कि उसी के शासन काल में ही हुसैन को कट्टरपंथी हिंदु संगठनों की धमकियों के चलते हिंदुस्तान छोड़ना पड़ा। इन कट्टरपंथी संगठनों नें हुसैन पर हिंदु देवी-देवताओं की मर्यादा के साथ छेड़छाड़ का आरोप लगाते हुए देश भर की विभिन्न अदालतों में मुकद्दमें ठोंक दिये। लेकिन बात सिर्फ अदालत तक रूकती तब भी ठीक था। हुसैन को धमकियां मिलने लगीं और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। हुसैन को शायद सरकार का ये छद्म सेक्यूलरवाद रास नहीं आया और इसलिये उन्हे वतन छोड़ने का कड़ा फैसला लेना पड़ा। सेक्यूलरिज़्म के नाम पर सॉफ्ट हिंदुत्व का मुखौटा ओढ़ने का आरोप कांग्रेस पर हमेशा लगता आया है। ये एक ऐसा आरोप है जो कांग्रेस पार्टी ने सत कर लिया है। इसलिये इसको लेकर उसकी संवेदनशीलता सुन्न हो चुकी है।
आज जब कतर की राजशाही ने 95-वर्षीय हुसैन को कतर की नागरिकता बतौर तोहफा भेंट की है तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये। उन्होने कतर की नागरिकता के लिये एप्लाई नहीं किया था। वैसे भी हुसैन पिछले चार साल से हिंदुस्तान के रेसीडेंट होते हुए भी नॉन-रेसीडेंट इंडियन की ज़िदगी बसर कर ही रहे थे। लक्ष्मी निवास मित्तल और लॉर्ड स्वराज पॉल की तरह अब वो किसी भी देश के नागरिक बनें हमें क्या। एक भारतीय अंग्रेज़ी दैनिक के संपादक को भेजे एक छोटे से संदेश में उन्होने अपने नाम के आगे 'द इंडियन ओरिजन पेंटर' लिखा है और कहा है कि इस भेंट से उनका मान बढ़ा है। इन दिनों हुसैन भारतीय सभ्यता और अरब सभ्यता के थीम पर अपने दो अभिन्न प्रोजेक्ट में जुटे हैं। भारतीय सभ्यता पर नई पेंटिग्स का प्रोजेक्ट हुसैन को विदेशी धरती पर रहकर पूरा करना पड़ रहा सेक्यूलरिज़म और सहिषुणता पर इससे बड़ा मज़ाक क्या होगा।
चीन के ह्वेन त्सांग, मोरोक्को के इब्न बतूता और आज के उज़बेकिस्तान के अल-बरूनी से ही हमें भारतीय समाज और उस समय के इतिहास के सुनहरे पन्नों को पढ़ने का मौका मिला। इंडियन ओरिजन के कतरी नागरिकता वाले मकबूल फ़िदा हुसैन
अब एक विदेशी कूचे से हिंदुस्तान और पंढरपुर का इतिहास रंगेंगे। उनके इस प्रोजेक्ट में मां सरस्वती पल पल उनके साथ हो, मां दुर्गा उनके साहस में और इज़ाफा लाए और भगवान विठ्ठल पंढरपुर के पाट खोलकर खुद उनपर स्नेह बरसायें ये हर उस हिंदुस्तानी की कामना है जिसे जात-पात, प्रांतवाद और मज़हब के खांचे में रखकर उसे बांटने की चौतरफा साजिश रची जा रही है। लेकिन वो डटा हुआ है और घुटने नहीं टेकना चाहता। आज भी हुसैन के वापस लौटने की शर्त लगाई जा रही कि माफी मांग लें और वतन लौट आएं। हुसैन साहब, आप भले ही हिंदुस्तान न लौटें पर धर्म के इन ठेकेदारों से कतई माफी मत मांगिएगा। भारतीय सभ्यता की यही पहचान है।
(लेखक IBN7 में एडिटर स्पेशल एसाइनमेंट हैं उनसे prabhatshunglu@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है )

Saturday 20 February 2010

बदल गई बीजेपी ?

आखिर ये क्या हो गया है बीजेपी को, लगातार दो लोकसभा चुनावों में मात खाने के बाद बदले बदले से क्यों नजर आ रहे हैं पार्टी के तेवर । संघ के पसंदीदा नए नवेले अध्यक्ष नितिन गडकरी तो मुसलमानों को साथ लाने की अपील कर रहे हैं वो कह रहे हैं कि मुसलमान भाई आगे आएँ और सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल कायम करते हुए विवादित स्थल पर एक भव्य राम मंदिर बननें दें । राम मंदिर आंदोलन के हीरो कहलाने वाले आडवाणी के सामने ही मंच पर दिल बड़ा करते हुए वो ये भी कहते हैं कि अगर बगल की कोई जगह मिल गई तो बीजेपी एक भव्य मस्जिद का भी निर्माण करवाने में पूरा सहयोग करेगी। आप ही बताइए दिसंबर 1992 के बाबरी विध्वंस के बाद क्या बीजेपी के पास इस अपील का नैतिक अधिकार है । पर जो भी हो जमीन आसमान का फर्क नजर आ रहा है बीजेपी के चाल , चरित्र और चेहरे में ,बात भले ही घुमा फिरा कर वही की गई हो पर इस बार पार्टी नेताओं के बयान में 'मंदिर वहीं बनाएंगे ' का उग्र हिंदुवाद नदारद है। वो उग्र हिंदुवाद जो आज भी देश के एक समुदाय को डराता है। वो उग्र हिंदुवाद जो अक्सर खुद को देश के कानून से ऊपर समझ बैठता है और जोश में होश खोकर 6 दिसंबर 1992 को देश के गौरवमई लोकतंत्र में एक काला अध्याय जोड़ देता है। हिंदुवादी पार्टी से धर्मनिरपेक्ष पार्टी बनने की दिशा में ये बीजेपी का पहला कदम है। उसे इस बात का देर से ही सही अहसास हो गया है कि देश के 14 करोड़ मुसलमान भी इस देश का अहम हिस्सा हैं और बिना उनको साथ लिए पार्टी का कल्याण मुमकिन नहीं है।

लेकिन अपसोस होता है ये जानकर कि सादगी का नाटक कर पांचसितारा तंबुओं में इतने दिनों की माथापच्ची करने के बाद भी पार्टी मंदिर-मस्जिद से ऊपर नहीं उठ पाई । इतने दिनों के चिंतन के बाद भी बीजेपी के नेता सिर्फ इस नतीजे पर पहुंच पाए कि जनता को एक मंदिर के साथ साथ मस्जिद का भी एक लॉलीपॉप पकड़ा देना चाहिए । आप ही बताइए क्या बढ़ती मंहगाई और मंदी का मार झेल रही देश की जनता को इस बात से कोई वास्ता है , जिस देश की आधी आबादी युवा हो वो देश के विकास, बेहतर शिक्षा व्यवस्था और बेरोजगारी से निजात दिलाने की फ्यूचर प्लानिंग को तवज्जो देगी या एक ऐसी पार्टी पर भरोसा करेगी जो आज भी 1989 की अपनी 21 साल पुरानी सोच से उबर पाने में नाकाम है । क्या वो कभी एक ऐसी पार्टी का साथ देगी जो खुद को बदलना भी नहीं चाहती और बदला हुआ नजर भी आना चाहती है ।

जरा सोचिए इससे पहले क्या हमारे देश का विपक्ष कभी इतना कमजोर रहा कि सरकार की गलत नीतियों का माकूल जवाब भी न दे पाए। ऐसे वक्त में जब देश में पिछले 6 सालों से कांग्रेस लेड यूपीए की सरकार हो और महंगाई ने देश के हर आमो खास की कमर तोड़ रखी हो बीजेपी इस मुद्दे को क्या इमानदारी से उठा पाई । देश की जनता को क्या ये बता पाई कि एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री बढ़ती इनफ्लेशन रेट को रोक पाने में इतने लाचार क्यों नजर आते हैं । नहीं....बिल्कुल नहीं ,क्योंकि काफी दिनों से सत्ता सुख का आनंद न भोगने वाली बीजेपी शायद अब जनता की नब्ज पकड़ना भी भूल गई है । और यही वजह है कि इन तमाम ज्वलंत मुद्दों को छोड़ , आरएसएस के कट्टर हिंदुवादी चेहरे से कभी खुद को करीब और कभी दूर साबित करने के अंतर्द्वद में फंसे पार्टी के नेता अब धर्मनिरपेक्ष होने का दिखावा कर रहे हैं... थोड़ा डरते हुए क्योंकि आडवाणी का जिन्ना प्रकरण और धर्मनिरपेक्षता का चोला ओढने की जो कीमत उन्होंने चुकाई वो कोई भी अपने जेहन से निकाल नहीं पाया है।

उम्मीद तो थी कि एसी टेंट में ही सही लेकिन प्रकृति के थोड़े करीब आकर , नए युवा अध्यक्ष की अगुवाई में ये नेता कुछ नया सोचकर एक नई शुरूआत करेंगे पर बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि पार्टी की नेशनल एक्जेकेटिव में सुबह शाम चले मंथन के बाद भी ये नेता अपनी पार्टी के लिए अमृत नहीं निकाल पाए ।

Tuesday 16 February 2010

ठाकरे की ठसक का अंत

अब ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों का विरोध नहीं करेंगे बाल ठाकरे और उनके गुंडे, जल्दबाजी में नहीं बहुत सोच समझ कर फैसला किया है ठाकरे ने। मन में एक उधेड़बुन सी चल रही होगी क्या करें क्या न करें शाहरूख ने ऐसी बैंड बजाई कि कहीं के नहीं रहे, किस मुंह से किसी बात का विरोध करें , पता नहीं कोई मानेगा भी या नहीं , पता नहीं कोई डरेगा भी या नहीं। कहीं नफरत के सौदागर बन चुके शिवसैनिकों को फिर मुंह की न खानी पड़ जाए। कहीं उल्टे जनता का विरोध न सहना पड़ जाए। शरद पवार से ठाकरे की मुलाकात का जिक्र इसलिए नहीं कर रहा क्योंकि ठाकरे के फैसले का इससे कोई ताल्लुक नहीं है अगर पवार की दोस्ती की वजह से ही फैसला बदलना था तो कल तक शिवसेना के तमाम गुंडे ये कहते न फिरते कि हम तो ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों को मुंबई की धरती पर कदम तक नहीं रखने देंगे । इस वक्त ठाकरे के इस नए फैसले से दो बातें हुईं हैं एक तो कांग्रेस के सामने ये जताने निकले पवार की अकड़ ठंडी पड़ गई है कि वो उसके दुश्मन नंबर 1 ठाकरे के कितने नजदीक हैं और मौका पाकर पासा पलटने की कुवत रखते हैं । दूसरे और सबसे अहम ये कि आम जनता को ये पता चल गया है कि अगर इन कागज के शेरों के छिटपुट विरोध और मारपिटाई को तवज्जों न दी जाए तो ये किसी काम के नहीं रह जाएंगे।

असल बात तो यही है कि शिवसेना नाम के गुब्बारे की हवा अब निकल चुकी है। ठाकरे की ठसक का अंत हो चुका है । कहा था ना माई नेम इज खान के रिलीज के वक्त शाहरूख और मुंबईकरों के करारे तमाचे ने शिवसेना को कहीं का न छोड़ा, अब उनसे कोई नहीं डरेगा, अब उनकी कोई नहीं सुनेगा, अब उनकी नहीं चलेगी , वही हो रहा है। दरअसल शिवसेना को अब ये डर सताने लगा है कि कहीं शाहरूख विरोध की तरह इस आंदोलन की भी हवा न निकल जाए और बूढ़े ठाकरे को पूरे देश के सामने एक बार फिर शर्मसार न होना पड़ जाए । सो भलाई पैर वापस खींचने में ही है । वो समझ गई है कि ये पब्लिक है सब जानती है उसे पता है कि ऑस्ट्रलियाई खिलाड़ियों के यहां आकर खेलने न खेलने से वहां भारतीय छात्रों पर हो रहे नस्लवादी हमलों पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। उसे पता है कि इस तरह के इमोशनल मुद्दे भड़काकर शिवसेना अपनी खोई जमीन हासिल करने की फिराक़ में है। उसे पता है कि शिवसेना की क्षेत्रवाद से लबरेज विचारधारा को अगर अमली जामा पहना दिया गया तो इस देश की अखंडता तार तार हो सकती है ।

जनता होशियार हो चुकी है शाहरूख का साथ देकर उसने अपना स्टैंड भी साफ कर दिया है अब बारी हमारी है , मीडिया की है जिसे अब शिवसेना और एमएनएस के गुंडों को उनके दायरे में समेटने का काम शुरू कर देना चाहिए । उनके बयानों को पूरे देश की जनता तक पल भर में पहुंचाने की अपनी आदत से बाज़ आना चाहिए । गालियों से भरे और अलोकतांत्रिक धमकियों का पिटारा बन चुके शिवसेना के मुखपत्र सामना के एडीटोरियल में टीवी न्यूज की सुर्खियां ढूंढने वाले पत्रकारों को भी अब ये समझ लेना चाहिए कि देश की जनता अब ठाकरे के तीखे तेवरों और जहरीले बाणों से बोर होकर तंग आ चुकी है। लिहाजा मुंबई की दूसरी अहम खबरों पर तवज्जों देना सीख लें।

Sunday 14 February 2010

'Khan' Repaired Almost Everything

वीकएंड पर फिल्में देखना मेरा शौक है पर अक्सर मसरूफियत की वजह से वक्त नहीं मिलता सो मन मसोस कर भी रहना पड़ जाता है...लेकिन इस बार फ्राइडे नाइट को ऑफिस से निकला तो थकान का अहसास न के बराबर था और अक्सर फैसला लेने की घड़ी में डबल माइंड रहने की मेरी आदत भी रफूचक्कर थी । फर्स्ट डे फर्स्ट शो नहीं तो क्या हुआ । फैसला लिया जा चुका था कि इंतजार बिल्कुल नहीं....माई नेम इज खान तो आज ही देखूंगा...ऐसा भी नहीं कि मैं शाहरूख का बहुत बड़ा फैन हूं लेकिन जब दिन में सौ बार किसी फिल्म से जुड़ी ब्रेकिंग न्यूज देनी पड़े तो उसके लिए चाहत तो अपने आप ही जग जाती है...न जाने क्यों ये लग रहा था कि भई कुछ तो खास होगा इस फिल्म में...ये जानते हुए भी कि फिल्म के निर्देशक करन जौहर हैं जिनकी इससे पहले की फिल्में चाहे वो कुछ कुछ होता है , हो 'कभी खुशी कभी गम' हो या फिर कभी अलविदा न कहना न जाने क्यों मुझे एक जैसी लगीं । लगा एक ही फिल्म चले जा रही हो.....फिर भी इस फिल्म को देखने का बड़ा मन था.....खैर परिवार के साथ फिल्म देखने पहुंचा और जब बाहर निकला तो मन में बहुत सारी चीजें क्रिस्टल की तरह साफ हो चुकी थीं.....

शाहरूख के हाथों में '' रिपेयर ऑलमोस्ट ऐनीथिंग " का प्लैकार्ड देखकर पहली बात जो मन में आई वो थी कि वाकई शाहरूख ने अपनी इस फिल्म के जरिए सब कुछ रिपेयर कर डाला....शिवसेना की हिटलरशाही, ठाकरे का गुरूर, बॉलीवुड का डर, भगवा गुंडों की गुंडागर्दी, और आम जनता में बसा उनका खौफ । ये खान हर मोर्चे पर कामयाब हुआ, जरा सोचिए क्या इससे पहले बॉलीवुड के किसी पठान या बच्चन ने इतनी हिम्मत दिखाई थी कि ठाकरे की सत्ता को चुनौती दे....नहीं, कभी नहीं...हमेशा से ही बॉलीवुड इनकी सत्ता के आगे नतमस्तक होता आया है । लेकिन शाहरूख ने इस बार ठाकरे को बता दिया कि उनका पाला एक मर्द से पड़ा है । ये सब सुनने के बाद शाहरूख को अगर आप बॉलीवुड का इकलौता मर्द कहने की सोच रहे हैं तो मैं आपके साथ हूं ।

मनोज देसाई जैसे सिनेमामालिकों या कहें शिवसेना प्रमुख के इक्का दुक्का चमचों ने ठाकरे का टेरर फैलाने की भरपूर कोशिश की और थोड़ी देर के लिए ये जरूर लगा कि अब पूरे महाराष्ट्र में फिल्म नहीं चल पाएगी और फिल्म के निर्माताओं का कम से कम 45-50 करोड़ का नुकसान तय है । पर ये हम सबकी भूल थी..हम भूल गए थे जनता की ताकत...हम भूल गए थे कि जनता हमेशा सच के साथ होती है । और इसीलिए हमें ये लगने लगा था कि मुंबई को अपनी ज़रखरीद जागीर समझने वाले चंद गुंडों से डरकर जनता फिल्म देखने थिएटर नहीं जाएगी। खुदा का शुक्र है कि ऐसा नहीं हुआ। हो जाता तो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र तार तार हो जाता....शुक्र है उन मुंबईकरों की स्पिरिट का जो पूरे परिवार के साथ फिल्म देखने निकले और नफरत की राजनीति करने वालों को एक करारा तमाचा जड़ते हुए उन्हें पानी पानी कर दिया

वैसे खुद को स्वयंभू शेर डिक्लेयर करने वाले ठाकरे को गीदड़ साबित करने के अलावा खान एक और मोर्चे पर बेहद सफल रहे और वो मोर्चा था ये फिल्म .. शाहरूख ने अपनी इस फिल्म के जरिए देश को मोहब्बत का एक नायाब तोहफा दिया । गोया किंग खान को फिल्म बनाते वक्त ही पता हो कि ये बवाल होने वाला है और उसी वक्त उन्होंनें रील के साथ रियल क्लाईमेक्स भी तैयार कर लिया । वाकई ये फिल्म खान बनाम ठाकरे की , मोहब्बत बनाम नफऱत की इस जंग का क्लाईमेक्स ही थी। फिल्म का एक एक सीन बड़ी शिद्दत के साथ फिल्माया गया नजर आया और बड़े दिनों बाद लगा कि किसी ने दिल से कोई फिल्म बनाई है । कोई भला कैसे भुला सकता है फिल्म में शाहरूख की मां का वो डायलॉग कि - बेटा इस दुनिया में सिर्फ दो ही तरह के लोग होते हैं एक अच्छे और दूसरे बुरे। कैसे भुलाया जा सकता है वो सीन जिसमें एक सफेदपोश आतंकवादी मस्जिद के अंदर बैठकर नौजवानों को खुद की गढ़ी हुई इस्लाम की परिभाषा से बरगला रहा होता है और रिजवान खान की सही इस्लाम की समझ उसे पल भर में सबकी नजर में शैतान बना देती है। सीधा सबक ये कि जो कोई भी इस्लाम को सही से समझ चुका है , पढ़ चुका है वो दहशतगर्दों के बहकावे में कभी आ ही नहीं सकता । सबक ये कि इस दुनिया में मोहब्बत से बड़ा कोई मजहब है ही नहीं ।

वाकई शाहरूख आज तुम्हारे लिए मेरे दिल में इज्जत और बढ़ गई, रील और रियल लाइफ दोनों के जरिए तुमने बता दिया कि अगर किसी का दिल जीतना है तो उससे मोहब्बत करना सीखो और अगर खुद का बेड़ा गर्क करना है तो नफरत फैलाओ। मुझे ये कहते हुए कोई शक नहीं कि शाहरूख का माफी न मांगने का ये स्टैंड और लाख धमकियों के बाद घर से बाहर निकल कर यूं जनता का उसे सिर आंखों पर बिठाना महाराष्ट्र के चंद शहरों तक सिमटी ठाकरे की सत्ता के ताबूत की आखिरी कील साबित होगा । क्योंकि आज के बाद ठाकरे बंधु किसी फिल्मकार पर बवाल काटने के बाद उसकी रिलीज रुकवाने का सिर्फ सपना ही देखेंगे यकीन जानिए ये कोई छोटी बात नहीं है ...क्योंकि उनकी ये हार ही देश में लोकतंत्र की सबसे बड़ी जीत है ।

Tuesday 2 February 2010

न्यूज़एंकर बनना है ?

सुबह होती है शाम होती है जिंदगी यूं ही तमाम होती है पर एक न्यूज चैनल के एंकर की जिंदगी यूं ही नहीं तमाम होती...क्योंकि उसके पास करने के लिए बहुत कुछ नया होता है...जानने के लिए बहुत कुछ होता है और वो कितना जानता है ये दुनिया को बताने के लिए बहुत कुछ होता है....आगे बढ़ने से पहले बताता चलूं कि मैं जिस न्यूज एंकर की बात कर रहा हूं उसकी छवि एक जमाने में दूरदर्शन पर अवतार की तरह नजर आने वाले और देश को देश के बारे में जानकारी देने के एकमात्र साधन माने जाने वाले वेद प्रकाश ,शम्मी नारंग और सलमा सुल्तान जैसे देवी देवताओं से बिल्कुल अलग है....ये आज का न्यूज एंकर है जिसे सड़क पर निकलने में कोई नहीं पहचानता..जिसके पास खबरें पढ़ने के दौरान रिफ्रेंस के लिए टेलीप्रॉम्पटर यानि टीपी नाम का हथियार तो है लेकिन उसका इस्तेमाल करने का वक्त कम ही मिलता है क्योंकि ये ब्रेकिंग न्यूज का जमाना है...खासतौर पर जो न्यूज एंकर्स दिन के स्लॉट में एंकरिंग करते हैं उनके लिए तो ये बात सौ फीसदी सत्य है....हर दो मिनट पर एक ब्रेकिंग न्यूज ...कभी हंगामा...कभी लाठी चार्ज.....कभी टीमइंडिया का सेलेक्शन, कभी हार कभी जीत, कभी खिलाड़ियों की चोट , कभी किसी राजनैतिक दल का हंगामा, कभी किसी बॉलीवुड या टीवी एक्टर का प्रमोशनल इंटरव्यू......तमाम ऐसी खबरें जिनमें डेस्क के सहयोग से आपको गिनी चुनी 2-4 लाइनें लिखीं मिल गईं तो गनीमत समझिए.....अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि ऐसे में आपको हर विषय की कितनी जानकारी होनी चाहिए कि आप 10-12 मिनट तक एक दो लाइनों की खबर को घसीटने का बूता अपने अंदर पैदा कर पाएं । लबोलुआब ये कि तमाम न्यूज पेपर्स का घुट्टा लगाने के अलावा कोई शॉर्टकट आपको कभी भी मुश्किल में डाल सकता है ।

ये हाल तो तब है जब डेस्क पर बैठे प्रोड्यूसर्स ब्रेकिंग खबर आते ही चीते की फुर्ती दिखाते हुए उसे लिख मारे.....कई बार तो ये लाइनें भी लिखी हुईं नहीं पीसीआर के शोरशराबे के बीच कानों में डायरेक्ट मिलती हैं , इसीलिए कहता हूं आज के एंकर का दिमाग तेज होने के साथ साथ कानों का तेज होना भी अत्यंत जरूरी है। क्योंकि अगर इस शोरगुल में आपने वो लाइनें मिस कर दीं तो समझिए हो गया कांड। फिर तो आपके दर्शक की गालियों से आपको कोई नहीं बचा सकता। हर कोई यही कहेगा कि एंकर ने होमवर्क नहीं किया । हो सकता है स्टूडियो की सीढियां उतरते उतरते बॉस भी झिड़क दे कि इतने सीनियर हो गए हो अभी भी सिचुएशन संभालना नहीं आया, न जाने कब सीखोगे.....

कहने का मतलब ये कि आज के दौर में लाइव न्यूज एंकरिंग करना तलवार की धार पर चलने से किसी मायने में कम नहीं है....अगर आप चाहते हैं कि लोग आपको एक अच्छे और समझदार एंकर के रूप में जानें। वरना ये वो जगह है जहां इक्का दुक्का गलतियों पर निठल्ला होने का तमगा मिलते देर नहीं लगती और एक बार अगर दर्शकों के बीच आपकी ऐसी छवि बन गई तो समझ लीजिए , चाहकर भी उस इमेज को तोड़ना आसान नहीं होगा.....बिल्कुल वैसे ही जैसे चंद नौटंकिया करने के बाद राखी सावंत के घर में अगर सच में भी डाका पड़ जाए तो लोग उसे पब्लिसिटी स्टंट ही समझेंगे उससे ज्यादा कुछ नहीं......

और हां ये तो बात हुई सुबह या दिन के स्लॉट्स में एंकरिंग करने वाले एंकरों की लेकिन शाम 5 बजते ही प्राइम टाइम के शुरू होने के बाद बुलेटिन्स की कमान संभालने वाले एंकरों की दिक्कतें भी कम नहीं हैं । भले ही ब्रेकिंग न्यूज का प्रेशर कुछ हद तक कम हो जाए लेकिन परेशानियां यहां भी हैं । पहली बात तो ये कि 5-6 साल से कम के एक्सपीरिंयस के बिना इस स्लॉट में एंकरिंग मिलना ही नामुमकिन सा है । दूसरे ये कि प्राइम टाइम एंकर से उम्मीद की जाती है कि उसे किसी भी खबर के हर पहलू की जानकारी होगी , हर खबर के इतिहास से लेकर भूगोल तक, ए से लेकर ज़ेड तक उसे पता होगा ही। जाहिर है हर बड़ी खबर पर जब बड़े बड़े संपादकों, नेताओं , और अभिनेताओं के साथ चर्चा करनी हो या फिर हर खबर का आम लोगों पर पड़ने वाला असर उन्हें समझाना हो तो बॉसेज़ का ये उम्मीद करना बेमानी भी नहीं और लास्ट बट नॉट द लीस्ट- हिंदी एंकर बनना है तो भी हिंदी के साथ साथ अग्रेजी शब्दों का सही प्रोननसिएशन अगर नहीं सीखा है तो आपने खुद ब खुद एंकरिंग के लिए अपनी किस्मत के कपाट बंद कर लिए हैं यही समझा जाएगा...

कहने का मतलब ये कि इस फील्ड में आना है तो पूरी तैयारी के साथ आईए हो सके तो कम से कम 2-3 सालों के रिपोर्टिंग अनुभव के बाद आईए क्योंकि अब जमाना बदल चुका है। एक जमाने में सेलेब्रिटी समझे जाने वाले खबरनवीसों का वो दर्जा तो अब नहीं रहा लेकिन उनसे दर्शकों की उम्मीदें काफी बढ़ चुकी हैं और एक न्यूज रीडर ,अब न्यूज एंकर का रूप धारण कर चुका है जिसका काम सिर्फ खबरें पढ़ना नहीं एक खबर की तह तक जाकर खुद अपनी काबिलियत से घंटों तक लोगों को बांधे रखना है । और अगर आप में हैं ये तमाम खूबियां या अपनी काबिलियत को इन खूबियों में बदलने का जज्बा तो आपको फेस ऑफ द चैनल बनने से कोई रोक नहीं सकता.....आमीन